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अधिकारः ९]
समयसारः। जा एसो पयडीयढे चेया णेव विमुंचए । अयाणओ हवे ताव मिच्छाइट्ठी असंजओ ॥ ३१४ ॥ जया विमुंचए चेया कम्मप्फलमणंतये । तया विमुत्तो हवइ जाणओ पासओ मुणी ॥ ३१५॥
यावदेष प्रकृत्यर्थं चेतयिता नैव विमुंचति ।। अज्ञायको भवेत्तावन्मिथ्यादृष्टिरसंयतः ॥ ३१४ ॥ यदा विमुंचति चेतयिता कर्मफलमनंतकं ।
तदा विमुक्तो भवति ज्ञायको दर्शको मुनिः ॥ ३१५॥ यावदयं चेतयिता प्रतिनियतस्खलक्षणानिर्ज्ञानात् प्रकृतिस्वभावमात्मनो बंधनिमित्तं न मुंचति तावत्स्वपरयोरेकत्वज्ञानेनाज्ञायको भवति । स्वपरयोरेकत्वदर्शनेन मिथ्यादृष्टिर्भस्वस्वरूपत इत्युक्तं भवति ॥३१२॥३१३॥ अथ यावत्कालं शुद्धात्मसंवित्तिच्युतः सन् प्रकृत्यर्थं प्रकृत्युदयरूपं रागादिकं न मुंचति तावत्कालमज्ञानी स्यात् तदभावे ज्ञानी च भवतीत्युपदिशतियावत्कालमेष चेतयिता जीवः, चिदानंदैकस्वभावपरमात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुभवरूपाणां सम्यग्दशनज्ञानचारित्राणामभावात्प्रकृत्यर्थं रागादिकर्मोदयरूपं न मुंचति, तावत्कालं रागादिरूपमात्मानं श्रद्दधाति जानात्यनुभवति च ततो मिथ्यादृष्टिर्भवति, अज्ञानी भवति, असंयतश्च भवति, तथा
और प्रकृति भी आत्माके निमित्तसे उत्पत्ति विनाशको प्राप्त होती है आत्माके परिणामके अनुसार परिणमती है । इसतरह आत्मा और प्रकृति इन दोनोंके परमार्थसे कर्ता कर्मपनेके भावका अभाव होनेपर भी परस्पर निमित्तनैमित्तिकभावसे दोनोंके ही बंध देखा जाता है उस बंधसे संसार होता है उसीसे दोनोंके कर्ता कर्मका व्यवहार प्रबतता है ॥ भावार्थ-आत्मा और प्रकृतिके परमार्थसे कर्ता कर्मपनेका अभाव है तोभी परस्पर निमित्तनैमित्तिकभावसे कर्ता कर्मका भाव है इससे बंध है, बंधसे संसार है। ऐसा व्यवहार है ॥ ३१२।३१३ ॥
आगे कहते हैं जबतक आत्मा प्रकृतिके निमित्तसे उपजना विनाश होना न छोडे तबतक अज्ञानी मिथ्यादृष्टि असंयत है:--[एष चेतयिता] यह आत्मा [यावत्] जबतक [ प्रकृत्यर्थ ] प्रकृति के निमित्तसे उपजना विनशना [नैव विमुंचति ] नहीं छोडता [ तावत् ] तबतक [ अज्ञायकः ] अज्ञानी हुआ [मिथ्यादृष्टिः ] मिथ्यादृष्टि [ अंसयतः] असंयमी [भवेत् ] होता है। [यदा] और जब [चेतयिता ] आत्मा [ अनंतकं ] अनंत [ कर्मफलं ] कर्मफलको [विमुंचति] छोड देता है [तदा] उससमय [विमुक्तः] बंधसे रहित हुआ [ज्ञायकः दर्शकः ] ज्ञाता द्रष्टा [मुनिः भवति ] संयमी होता है ॥ टीका-जबतक यह