Book Title: samaysar
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Jain Granth Uddhar Karyalay

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Page 433
________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । निर्वेदसमापन्नो ज्ञानी कर्मफलं विजानाति । मधुरं कटुकं बहुविधमवेदको तेन प्रज्ञप्तः ॥ ३१८ ॥ ज्ञानी तु निरस्त भेदभावश्रुतज्ञानलक्षणशुद्धात्मज्ञानसद्भावेन परतोऽत्यंत विविक्तस्वात् प्रकृतिस्वभावं स्वयमेव मुंचति ततो मधुरं मधुरं वा कर्मफलमुदितं ज्ञातृत्वात् केवलमेव जानाति, न पुनर्ज्ञाने सति परद्रव्यस्याहंतयाऽनुभवितुमयोग्यत्वाद्वेदयते । अतो ज्ञानी प्रकृतिस्वभावविरक्तत्वादवेदक एव । " ज्ञानी करोति न न वेदयते च कर्म जानाति केवलमयं किल तत्स्वभावं । जानन्परं करणवेदनयोरभावात् शुद्धस्वभावनियतः स हि मुक्त एव ॥ १९८ ॥ ३९८ ॥ ४२० [ सर्वविशुद्धज्ञान कटुकं जानाति । शुभकर्मफलं बहुविधं गुडखंडशर्करामृतरूपेण मधुरं जानाति । नच शुद्धात्मोत्थसहजपरमानंदरूपमतींद्रियसुखं विहाय पंचेन्द्रियसुखे परिणमति, तेन कारणेन ज्ञानी वेदको भोक्ता न भवतीति नियमः । एवं ज्ञानी शुद्धनिश्चयेन शुभाशुभकर्म विधं ] इत्यादि अनेकप्रकार है [ तेन ] इसकारण सः ] वह [अवेदकः भवति] भोक्ता नहीं है । टीका - ज्ञानी अभेदरूप भावश्रुतज्ञानस्वरूप शुद्धात्मा के ज्ञानके होने से परसे अत्यंत विरक्त है । इसलिये वह ज्ञानी कर्मके उदयके स्वभावको स्वयं ही छोड देता है उसरूप नहीं परिणमता । इसकारण मीठा कड़वा सुखदुःखरूप उदय आयेहुए कर्मफलको केवल जानता ही है । क्योंकि ज्ञानका ज्ञातापन ( जानना ) स्वभाव है इसलिये कर्ता नहीं बनता और भोक्ता भी नहीं बनता । ज्ञान होनेपर परद्रव्यको अहंबुद्धिकार अनुभव करनेकी अयोग्यता है इसकारण भोक्ता नहीं होता । क्योंकि ज्ञानी कर्मस्वभावसे विरक्त है इसलिये भोक्ता नहीं है ॥ भावार्थ - जो जिससे विरक्त होता है। उसको अपने वश तो भोगता नहीं है यदि परवश भोगे तो उसे परमार्थ में ( असल में ) भोक्ता नहीं कहते इस न्याय से ज्ञानीभी कर्मके उदयको अपना नहीं समझता उससे विरक्त है सो स्वयमेव तो भोगता ही नहीं परंतु उदयकी बलवत्तासे परवश हुआ अपनी निर्बलता से भोगे तो उसे वास्तव में भोक्ता नहीं कहते व्यवहारसे भोक्ता है उसका यहां शुद्धयसे अधिकार नहीं है । अब इस अर्थका कलशरूप १९८ वां काव्य कहते हैंज्ञानी इत्यादि । अर्थ - ज्ञानी जीव कर्मको स्वतंत्र होके नहीं करता है न भोगता है केवल उस कर्मस्वभावको जानता ही है । इसतरह केवल जानताहुआ करने और भोगनेके अभावसे शुद्धस्वभाव में निश्चल है । सो निश्चयकर कर्मोंसे छूटा हुआ ही कहा जाता है || भावार्थ - ज्ञानी कर्मका स्वाधीनपनेसे कर्ता भोक्ता नहीं है केवल ज्ञाता ही है इसलिये शुद्धस्वभावरूप हुआ मुक्त ही है । कर्मका उदय आय भी जाता है तो ज्ञानीका क्या कर सकता है ? कुछ नहीं । जबतक निर्बलपन रहता है तबतक कर्म जोर चलालें कभी तो वह कर्मका निर्मूल नाश करेगा ही ॥ ३१८ ॥

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