Book Title: samaysar
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Jain Granth Uddhar Karyalay

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Page 436
________________ अधिकारः ९] समयसारः । ४२३ ष्ण्यानुभवनस्य चं दुर्निवारत्वात् । किंतु केवलं दर्शनमात्रस्वभावत्वात् तत्सर्वं केवलमेव पश्यति । तथा ज्ञानमपि स्वयं दृष्टित्वात् कर्मणोऽत्यंतविभक्तत्वेन निश्चयतस्तत्करणवेदनयोरसमर्थत्वात्कर्म न करोति न वेदयते च । किंतु केवलं ज्ञानमात्रस्वभावत्वात्कर्मबंधं किं च विशेषः — औपशमिका दिपंचभावानां मध्ये केन भावेन मोक्षो भवतीति विचार्यते । तत्रौपशमिकक्षायोपशमिकक्षा यिकौदयिकभाव चतुष्टयं पर्यायरूपं भवति शुद्धपरिणामिकस्तु द्रव्यरूप इति । तच्च परस्परसापेक्षं द्रव्यपर्यायद्वयमात्मा पदार्थो भण्यते । तत्र तावज्जीवत्वभव्यत्वाभव्यत्वत्रिविधपरिणामिकभावमध्ये शुद्ध जीवत्वं शक्तिलक्षणं यत्पारिणामिकत्वं तच्छुद्धद्रव्यार्थिकनयाश्रितत्वान्निरावरणं शुद्धपारिणामिकभावसंज्ञं ज्ञातव्यं तत्तु बंधमोक्षपर्यायपरिणतिरहितं । यत्पुनर्दशप्राणरूपं जीवत्वं भव्याभव्यत्वद्वयं तत्पर्यायार्थिकनयाश्रितत्वादशुद्धपारिणामिकभावसंज्ञमिति । कथमशुद्धमिति चेत्, संसारिणां शुद्धनयेन सिद्धानां तु सर्वथैव दशप्राणरूपजीवत्वभव्याभव्यत्वद्वयाभावादिति । तस्य त्रयस्य मध्ये भव्यत्वलक्षणपारिणामिकस्य तु यथासंभवं सम्यक्त्वा दिजीवगुणघातकं देशघातिसर्वघातिसंज्ञं मोहादिकर्मसामान्यं पर्यायार्थिकनयेन प्रच्छादकं भवति इति विज्ञेयं । तत्र च यदा कालादिलब्धिवशेन भव्यत्वशक्तेर्व्यक्तिर्भवति तदायं जीवः सहजशुद्धपारिणामिकभावलक्षणनिजपरमात्मद्रव्यसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणपर्यायेण परिणमति । तच्च परिणमनमागमभाषयोपशमिकक्षायोपशमिकक्षायिकं भावत्रयं भण्यते । अध्यात्मभाया पुनः शुद्धात्माभिमुखपरिणामः शुद्धोपयोग इत्यादि पर्यायसंज्ञां लभते । स च पर्यायः शुद्धपारिणामिकभावलक्षणशुद्धात्मद्रव्यात्कथंचिद्भिन्नः । कस्मात् ? भावनारूपत्वात् । शुद्धपा भावार्थ - ज्ञानका स्वभाव नेत्रकी तरह दूरसे जाननेका है इसलिये करना भोगना उसके नहीं है। जो करना भोगना मानना है वह अज्ञान है । यहां कोई पूछे कि ऐसा तो केवलज्ञान है । जबतक मोहकर्मका उदय है तबतक तो सुखदुःखरागादिरूप परिणमता ही है, दर्शनावरण ज्ञानावरण वीर्यांतरायका उदय है तबतक अदर्शन अज्ञान असमर्थपना होता ही है तो केवलज्ञानके पहले ज्ञाता द्रष्टा कैसे कह सकते हैं ? उसका समाधान - यह तो पहले से ही कहते आते हैं कि स्वतंत्र होके करे भोगे उसे वास्तवमें कर्ता भोक्ता कहते हैं । सो जब मिध्यादृष्टिरूप अज्ञानका अभाव हुआ तब परद्रव्यके स्वामीपनका अभाव हुआ तब आप ज्ञानी हुआ स्वतंत्रपनेसे तो किसीका कर्ता भोक्ता नहीं होता । परंतु अपनी निर्बलतासे कर्मके उदयकी बलवत्ताकर जो कार्य होता है उसको परमार्थदृष्टिसे कर्ता भोक्ता नहीं कहते । उसके निमित्तसे जो कुछ नवीन कर्मरज लगती भी है तो उसको यहां बंधमें नहीं गिना । जो संसार है वह तो मिध्यात्व है, मिध्यात्वके चले जानेके वाद संसारका अभाव ही होता है समुद्र में बूंदकी क्या गिनती ? | इतना और भी जानना कि केवलज्ञानी तो साक्षात् शुद्धात्मस्वरूप ही है।

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