________________
अधिकारः ९] . समयसारः।
४१७ अण्णाणी कम्मफलं पयडिसहावडिओ दु वेदेइ। णाणी पुण कम्मफलं जाणइ उदियं ण वेदेइ ॥ ३१६ ॥
अज्ञानी कर्मफलं प्रकृतिस्वभावस्थितस्तु वेदयते ।
ज्ञानी पुनः कर्मफलं जानाति उदितं न वेदयते ॥ ३१६ ॥ अज्ञानी हि शुद्धात्मज्ञानाभावात् स्वपरयोरेकत्वज्ञानेन, स्वपरयोरेकत्वदर्शनेन, स्वपश्योरेकत्वपरिणत्या च प्रकृतिस्वभावे स्थितत्वात् प्रकृतिस्वभावमप्यहंतया अनुभवन् कर्मफलं वेदयते । ज्ञानी तु शुद्धात्मज्ञानसद्भावात्स्वपरयोविभागज्ञानेन स्वपरयोविभागदर्शनेन स्वपरयोरेकत्वपरिणत्या च प्रकृतिस्वभावादपसृतत्वात् शुद्धात्मस्वभावमेकमेवाहंतयानुभवन् कर्मफलमुदितं ज्ञेयमात्रत्वात् जानात्येव न पुनस्तस्याहंतयाऽनुभवितुमशभावो न भवति, कस्मात् ? अज्ञानस्वभावत्वात्, इति कथयति-अण्णाणी कम्मफलं पयडिसहावहिदो दु वेदेदि विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपाभेदरत्नत्रयात्मकभेदज्ञानस्याभावादज्ञानी जीवः उदयागतकर्मप्रकृतिस्वभावे सुखदुःखस्वरूपे स्थित्वा हर्षविषादाभ्यां तन्मयो भूत्वा कर्मफलं वेदयत्यनुवति । णाणी पुण कम्मफलं जाणदि उदिदं ण वेदेदि ज्ञानी पुनः पूर्वोक्तभेदज्ञानसद्भावात् वीतरागसहजपरमानंदरूप__ आगे इसी अर्थको गाथामें कहते हैं;-[अज्ञानी ] अज्ञानी [कर्मफलं ] कर्मके फलको [प्रकृतिखभावस्थितः ] प्रकृति के स्वभावमें तिष्ठा हुआ [ वेदयते ] भोगता है [ पुनः ] और [ ज्ञानी ] ज्ञानी [ उदितं ] उदयमें आये हुए [कर्मफलं ] कर्मके फलको [जानाति] जानता है [ तु] परंतु [ न वेदयते ] भोगता नहीं है। टीका-अज्ञानी निश्चयकर शुद्ध आत्माके ज्ञानके अभावंसे अपना परका एकपनेका श्रद्धान कर और अपनी परकी एकपनकी परिणतिकर प्रकृतिके स्वभावमें तिष्ठता है इसलिये प्रकृतिके स्वभावको अहंबुद्धिपनेकर आप अनुभवता हुआ कर्मके फलको भोगता है । और ज्ञानी शुद्ध आत्माके ज्ञानके सद्भावसे अपना परका भेद ज्ञानकर, अपने परके विभागका श्रद्धानकर और अपनी परकी विभागरूप परिणतिकर प्रकृतिके स्वभावसे दूरवर्ती हुआ है तथा अपने शुद्ध आत्माके भावको एकको ही अहंबुद्धिपनकर आप अनुभवता है। इसतरह अनुभव करताहुआ उदयमें आये कर्मके फलको ज्ञेयमात्रपनेसे जानता ही है परंतु उसे अहंपनेकर अनुभव न करनेसे भोगता नहीं है ॥ भावार्थअज्ञानीके तो शुद्ध आत्माका ज्ञान नहीं है इसलिये जैसा कर्म उदयमें आता है उसीको अपना जान भोगता है और ज्ञानीके शुद्ध आत्मानुभव होगया है इससे प्रकृतिके उदयके आनको अपना स्वभाव नहीं जानता उसका ज्ञाता ही रहता है भोक्ता नहीं होता । अब इस अर्थका कलशरूप १९७ वां काव्य कहते हैं-अज्ञानी इत्यादि। अर्थ-अज्ञानी
५३ समय