________________
४११
अधिकारः ९]
समयसारः। जीवस्याजीवस्य तु ये परिणामास्तु दर्शिताः सूत्रे । ते जीवमजीवं वा तैरनन्यं विजानीहि ॥ ३०९ ॥ न कुतश्चिदप्युत्पन्नो यस्मात्कार्यं न तेन स आत्मा । उत्पादयति न किंचित्कारणमपि तेन न स भवति ॥ ३१० ॥ कर्म प्रतीत्य कर्ता कतीरं तथा प्रतीत्य कर्माणि ।
उत्पद्यते च नियमात्सिद्धिस्तु न दृश्यतेऽन्या ॥ ३११ ॥ जीवो हि तावत्क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानो जीव एव नाजीवः, एवमजीवोऽपि शगाथापर्यंत मोक्षपदार्थचूलिकाव्याख्यानं करोति । तत्रादौ निश्चयेन कर्मकर्तृत्वाभावमुख्यत्वेन सूत्रचतुष्टयं । तदनंतरं शुद्धस्यापि यद् ज्ञानावरणप्रकृतिबंधो भवति तदज्ञानस्य माहात्म्यमिति कथनार्थ चेदा दु पयडिअर्ट इत्यादि प्राकृतश्लोकचतुष्टयं । अतः परं भोक्तृत्वाभावज्ञापनार्थ अण्णाणी कम्मफलं इत्यादिसूत्रचतुष्टयं । तदनंतरं मोक्षचूलिकोपसंहाररूपेण विकुणदि इत्यादि सूत्रद्वयं कथयतीति मोक्षपदार्थचूलिकायां समुदायपातनिका । अथ निश्चयेन कर्मणां कर्ता न भवति इत्याख्याति;-यथा कनकमिह कटकादिपर्यायैः सहानन्यदभिन्नं भवति तथा द्रव्यमपि यदुत्पद्यते परिणमति । कैः सह ? स्वकीयस्वकीयगुणैः, तद्र्व्यं तैर्गुणैः सहानन्यदभिन्नमिति जानीहि इति प्रथमगाथा । जीवमोक्षकी तरह कल्पना प्रवृत्तिसे दूरवर्ती है तथा शुद्ध है शुद्ध है । दोवार कहनेसे रागादिक मल और आवरण दोनोंसे रहित है । फिर कैसा है ? अपने निजरस ( ज्ञानरस ) के फैलनेसे भरा ऐसा पवित्र और अचल जिसका प्रकाश है तथा जिसकी महिमा टंकोत्कीर्ण प्रगट है ॥ भावार्थ-शुद्धनयका विषय ज्ञानस्वरूप आत्मा है वह कर्ता भोक्तापनके भावसे रहित है । बंधमोक्षकी रचनाकर रहित है । परद्रव्यसे और सब परद्रव्यके भावोंसे रहित है इसलिये शुद्ध है और अपने निजरसके प्रवाहकर पूर्ण दैदीप्यमान ज्योतीरूप टंकोत्कीर्ण जिसकी महिमा है । ऐसा ज्ञानपुंज आत्मा प्रगट होता है । अब सर्वविशुद्ध ज्ञानको प्रगट करते हैं। वहां प्रथम ही कर्ता भोक्ता भावसे जुदा दिखलाते हैं उसकी सूचनाका १९४ वां श्लोक कहते हैं-कर्तृत्वं इत्यादि । अर्थ-इस चित्स्वरूप आत्माका कर्तापना स्वभाव नहीं है । जैसे भोक्तापन स्वभाव नहीं है उसतरह। यह आत्मा कर्ता माना जाता है वह अज्ञानसे माना जाता है । जब अज्ञानका अभाव हो जाता है तब कर्ता नहीं है । आगे आत्माका अकर्तापन दृष्टांतपूर्वक सिद्ध करते हैं;-[ यत् द्रव्यं ] जो द्रव्य [गुणैः] जिन अपने गुणोंकर [ उत्पद्यते ] उपजता है [ तत् ] वह [तैः] उन गुणोंकर [अनन्यत् ] अन्य नहीं [ जानीहि ] जानना उन गुणमय ही है [यथा] जैसे [ कनकं ] सुवर्ण [कटकादिभिः ] अपने कटक कडे आदि [ पर्यायैः] पर्यायोंकर [ इह ] लोकमें [ अनन्यत् तु] अन्य नहीं है-कटकादि है वह सुवर्ण