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अधिकारः ८]
समयसारः । सर्वविशद्धो दृङ्मात्रो भावोऽस्मि । अपि च-ज्ञातारमात्मानं गृण्हामि यत्किल गृण्हामि तजानाम्येव, जानन्नेव जानामि, जानतैव जानामि, जानते एव जानामि, जानत एव जानामि, जानत्येव जानामि, जानंतमेव जानामि । अथवा-न जानामि, न जानन् जानामि, न जानता जानामि, न जानते जानामि, न जानतो जानामि, न जानति जानामि न जानंतं जानामि । किंतु सर्वविशुद्धो ज्ञप्तिमात्रो भावोऽस्मि । ननु कथं चेतना दर्शनज्ञानविकल्पौ नातिकामति येन चेतयिता दृष्टा ज्ञाता च स्यात् १ उच्यते-चेतना तावत्प्रतिभासरूपा सा तु सर्वेषामेव वस्तूनां सामान्यविशेषात्मकत्वात् द्वैरूप्यं नातिकामति । ये तु तस्या द्वे रूपे ते दर्शनज्ञाने, ततः सा नातिकामति । यद्यतिकामति ? सामान्यविशे
व्यापकादात्मा चांतमुपैति तेन नियतं दृग्ज्ञप्तिरूपास्तु चित् । एकश्चितश्चिन्मय एव भावो भावाः परे ये किल ते परेषां ग्राह्यस्ततश्चिन्मय एव भावो भावाः परे सर्वत एव हेयाः ॥ अवशेषा ये रागादिभावा विभावपरिणामास्ते चिदानंदैकभावस्य ममापेक्षया परा इति ज्ञातव्याः । अत्राह शिष्यः-चेतनाया ज्ञानदर्शनभेदौ न स्तः, एकैव चेतना ततो ज्ञाता दृष्टेतिद्विधात्मा कथं घटते इति ? अत्र पूर्वपक्षे परिहारः-सामान्यग्राहकं दर्शनं, विशेषग्राहकं ज्ञानं । सामान्यविशेषात्मकं
यहां चेतनासामान्य है वह दर्शन ज्ञानविशेषको उलंघकर नहीं वर्तती इसलिये द्रष्टा और ज्ञाताका अनुभव कराया। वहां भी छहकारकरूप भेद अनुभवकर पीछे अभेद अनुभवअपेक्षा कारकभेद दूरकर द्रष्टा ज्ञातामात्रका अनुभव कराया है । यहां शिष्य पूछता है कि चेतना दर्शन ज्ञान भेदको कैसे नहीं उलंघती कि जिसकर आस्मा द्रष्टा ज्ञाता हो जाता है। उसका उत्तर कहते हैं-प्रथम तो चेतना प्रतिभासरूप है ऐसी चेतना दोरूपपनको नहीं उलंघके वर्तती क्योंकि सभी वस्तुका सामान्य विशेषरूप स्वरूप है। सो चेतना भी वस्तु है वह सामान्यविशेषरूपको कैसे उलंघे। उसके दोरूप हैं वे दर्शन ज्ञान हैं । इसलिये वह चेतना दर्शन ज्ञान इन दोनोंको नहीं उलंघती । यदि इन दो स्वरूपोंको उलंघे तो सामान्य विशेषरूपके उलंघनेपनेसे चेतना ही नहीं होती । उस चेतनाके अभावसे दो दोष आते हैं-एक तो अपने गुणका उच्छेद होनेसे चेतनके अचेतनपनकी प्राप्ति आती है और दूसरे, व्यापक चेतनका अभाव होनेसे व्याप्य जो चेतन आत्मा उसका अभाव होता है। इसकारण इन दोषोंके भयसे चेतना दर्शन ज्ञानस्वरूप ही अंगीकार करनी। अब इस अर्थका कलशरूप १८३ वां काव्य कहते हैं-अद्वैता इत्यादि । अर्थ-जगतमें निश्चयकर चेतना अद्वैत है तो भी जो दर्शन ज्ञानरूपको छोडे तो सामान्यविशेषरूपके अभावसे वह चेतना अपने अस्तिपनेको छोड दे और जब चेतना अपने अस्तित्वको छोड दे तो चेतनके जड़पना हो जाय । तथा व्याप्य आत्मा व्यापक चेतनाके विना अंतको प्राप्त हो जाय अर्थात् आत्माका नाश हो जाय । इसलिये