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४०६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
[ मोक्षकी भूमिमपश्यतः स्वकार्यकरणासमर्थत्वेन विपक्षकार्यकारिवाद्विषकुंभ एव स्यात् । अप्रतिक्रमणादिरूपा तृतीयभूमिस्तु स्वयं शुद्धात्मसिद्धिरूपत्वेन सर्वापराधविषदोषाणां सर्वकषत्वात् साक्षात्स्वयममृतकुंभो भवतीति व्यवहारेण द्रव्यप्रतिक्रमणादेरपि, अमृतकुंभत्वं साधयति । तयैव च निरपराधो भवति चेतयिता । तदभावे द्रव्यप्रतिक्रमणादेरप्यपराध एव । अतस्तृतीयभूमिकयैव निरपराधत्वमित्यवतिष्ठते, तत्प्राप्त्यर्थ एवायं द्रव्यप्रतिक्रमणादिः, ततो मेति मंस्था यत्प्रतिक्रमणादीन् श्रुतिरूपा जयति किंतु द्रव्यप्रतिक्रमणादिना न मुंचति अन्यदीयप्रतिक्रमणाप्रतिक्रमणाधगोचराप्रतिक्रमणादिरूपं शुद्धात्मसिद्धिलक्ष
तभोगाकांक्षारूपनिदानबंधादिसमस्तपरद्रव्यालंबनविभावपरिणामशून्या, चिदानंदैकस्वभावविशुद्धात्मालंबनभरितावस्था निर्विकल्पशुद्धोपयोगलक्षणा, अपडिकमणं इति गाथाकथितक्रमेण ज्ञानिजनाश्रितनिश्चयाप्रतिक्रमणादिरूपा तु या तृतीया भूमिस्तदपेक्षया वीतरागचारित्रस्थितानां पुरुषाणां विषकुंभ एवेत्यर्थः । किं च विशेषः-अप्रतिक्रमणं द्विविधं भवति ज्ञानिजनाश्रितं, अज्ञानिजनाश्रितं चेति । अज्ञानिजनाश्रितं यदप्रतिक्रमणं तद्विषयकषायपरिणतिरूपं भवति । ज्ञानिजीवाश्रितमप्रतिक्रमणं तु शुद्धात्मसम्यश्रद्धानज्ञानानुष्ठानलक्षणत्रिगुप्तिरूपं । तच्च ज्ञानि
प्रतिक्रमणादिक है । इससे ऐसा नहीं समझना कि निश्चयनयका शास्त्र द्रव्यप्रतिक्रमणादिको छुडाता है। तो क्या कहता है ? द्रव्यप्रतिक्रमणादिकसे ही आत्मा बंधसे नहीं छूटता इसके सिवाय अन्य भी प्रतिक्रमण अप्रतिक्रमण आदिके अगोचर अप्रतिक्रमणादिरूप शुद्धात्माकी सिद्धि जिसका लक्षण है और जिसका करना अति कठिन है वह ऐसा कुछ करता है वह आगेकी गाथामें कहेंगे। उसकी कम्मं इत्यादि गाथा है । उसमें निश्चय प्रतिक्रमणादिका स्वरूप आगे कहेंगे वहीं इस गाथाका भी अर्थ किया जाइगा ॥ भावार्थ-व्यवहारनयके आलंबीने कहा कि जो लगे दोषका प्रतिक्रमणादिकर ही आत्मा शुद्ध होता है तो पहले शुद्धात्माके आलंबनका खेद करनेसे क्या ? शुद्धहुए वाद उसका आलंबन होता है पहले तो आलंबनका खेद निष्फल है । उसको आचार्य समझाते हैं कि, द्रव्यप्रतिक्रमणादि दोषके मेंटनेवाले हैं परंतु शुद्ध आत्माका स्वरूप प्रतिक्रमणादिरहित है उसके आलंबनविना तो द्रव्यप्रतिक्रमणादिक दोषस्वरूप ही हैं दोषके मेंटनेको समर्थ नहीं हैं क्योंकि निश्चयकी अपेक्षासहित ही व्यवहारनय मोक्षमार्गमें है केवल व्यवहारका ही पक्ष तो मोक्षमार्गमें नहीं है बंधका ही मार्ग है । इसलिये ऐसा कहा है कि अज्ञानीके जो अप्रतिक्रमणादिक हैं वे तो विषकुंभ ही हैं उनकी तो क्या कथा ? परंतु जो व्यवहार चारित्रमें प्रतिक्रमणादिक कहे हैं वे भी निश्चयनयकर विषकुंभ ही हैं । क्योंकि आत्मा तो प्रतिक्रमणादिककर रहित शुद्ध अप्रतिक्रमणादिस्वरूप है । ऐसा जानना ॥ अब इस कथनका कलशरूप १८८ वां काव्य कहते हैं-अतो हताः