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अधिकारः ८ ]
समयसारः ।
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परद्रव्यपरिहारेण शुद्धस्यात्मनः सिद्धिः साधनं वा राधः अपगतो राधो यस्य भावस्य सोऽपराधस्तेन सह यश्चेतयिता वर्तते स सापराधः स तु परद्रव्यग्रहणसद्भावेन शुद्धात्मसि - द्ध्यभावाद्वंधशंकासंभवे सति स्वयमशुद्धत्वादनाराधक एव स्यात् । यस्तु निरपराधः स समग्रपरद्रव्यपरिहारेण शुद्धात्मसिद्धिसद्भावाद्वंघशंकाया असंभवे सति, उपयोगैकलक्षणशुद्ध आत्मैक एवाहमिति निश्चिन्वन् नित्यमेव शुद्धात्मसिद्धिलक्षणयाराधनया वर्तमान
रिति साधितमित्याराधितं च तस्यैव राधशब्दस्य पर्यायनामानि । अवगदराघो जो खलु चेदा सो होदि अवराहो अपगतो विनष्टो राधः शुद्धात्माराधना यस्य पुरुषस्य पुरुष एवाभेदेन भवत्यपराधः । अथवा अपगतो विनष्टो राधः शुद्धात्माराधः शुद्धात्माराधना यस्य रागादिविभावपरिणामस्य स भवत्यपराधः सहापराधेन वर्तते यः स सापराधः, चेतयितात्मा तद्विपरीतत्रिगुप्तिसमाधिस्थो निरपराध इति ॥ अथ हे भगवन् किमनेन शुद्धात्माराधनाप्रयासेन यतः प्रतिक्रमणाद्यनुष्ठानेनैव निरपराधो भवत्यात्मा, कस्मात् ? इति चेत्, सापराध.स्याप्रतिक्रमणादेर्दोषशब्दवाच्यापराधाविनाशकत्वेन विषकुंभत्वे सति प्रतिक्रमणादेर्दोषशब्दवा
ऐसा आत्मा परद्रव्यके ग्रहण के सद्भावसे शुद्ध आत्माकी सिद्धीके अभाव से उसके बंधकी शंकाका संभव होनेसे आप स्वयं अशुद्धपनसे अनाराधक ही है-आराधना करनेवाला नहीं है । और जो आत्मा अपराधरहित है वह समस्त परद्रव्य के परिग्रहका परिहारकरके शुद्ध आत्माकी सिद्धीके सद्भावसे उसके बंधकी शंकाका असंभव होनेसे ऐसा निश्चय करता वर्तता है 'कि मैं उपयोग लक्षणवाला एक शुद्ध आत्मा ही हूं वह आत्मा नित्य ही शुद्ध आत्माकी सिद्धिलक्षणवाली आराधनाकर वर्तमान होता है इसलिये आराकही है ॥ भावार्थ - संसिद्धि राध सिद्धि साधित आराधित- इन शब्दों का अर्थ एक ही है । सो यहां राध नाम शुद्ध आत्माकी सिद्धि अथवा साधनका है जिसके यह नहीं है वह आत्मा सापराध है, और जिसके यह हो वह निरपराध है । सापराध के बंधक शंका संभवती है इसलिये अनाराधक है, और निरपराध निश्शंक हुआ अपने उपयोगमें लीन होता है तब बंधकी शंका नहीं होती तब वह सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तपका एक भावरूप निश्चय आराधनाका आराधक ही है । अब इस अर्थका कलशरूप १८७ वां काव्य कहते हैं- अनवरत इत्यादि । अर्थ-जो आत्मा सापराध है वह तो निरंतर अनंतपुद्गलपरमाणुरूप कर्मोंकर बंधता है और जो निरपराध है वह बंधनको कभी नहीं स्पर्शता । तथा यह सापराध आत्मा तो अपने आत्माको नियमसे अशुद्ध ही सेवता सापराध ही होता है और जो निरपराध है वह अच्छीतरह शुद्ध आत्माका सेवने - वाला होता है । आगे व्यवहारनयका आलंबी तर्क करता है कि इस शुद्ध आत्माके सेवन के खेदसे क्या है ? क्योंकि प्रतिक्रमण आदि प्रायश्चित्तकर ही आत्मा निरपराध