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अधिकारः ६ ]
समयसारः ।
यः सिद्धभक्तियुक्तः उपगूहनकस्तु सर्वधर्माणां । स उपगूहनकारी सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्यः ॥ २३३ ॥
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यतो हि सम्यग्दृष्टिः टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन समस्तात्मशक्तीनामुपबृंहणादुपबृंहकः, ततोऽस्य जीवस्य शक्तिदौर्बल्यकृतो नास्ति बंधः किं तु निर्जरैव ॥ २३३॥ उम्मंगं गच्छंतं सगंपि मग्गे ठवेदि जो चेदा । सो ठिदिकरणात्तो सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो ॥ २३४ ॥ उन्मार्गं गच्छंतं खकमपि मार्गे स्थापयति यश्चेतयिता । स स्थितीकरणयुक्तः सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्यः ॥ २३४ ॥
दिविभावधर्माणामुपगूहकः प्रच्छादको विनाशकः सो उवगूहणगारी सम्मादिट्ठी मुव्वो स सम्यग्दृष्टि: उपगूहनकारी मंतव्यो ज्ञातव्यः । तस्य चानुपगूहनकृतो नास्ति बंधः किं तु पूर्वसंचितकर्मणो निश्चितं निर्जरैव भवति ॥ २३३ ॥ उम्मग्गं गच्छंतं सिवमग्गे जो ठवेदि अप्पाणं यः कर्ता मिथ्यात्वरागादिरूपमुन्मार्गं गच्छंतं संतमात्मानं परमयोगाभ्यासबलेन शिवमार्गे स्वशुद्धात्मभावनारूपे निश्चयमोक्षमार्गे निश्चलं स्थापयति सो ठिदिकरणेण जुदो सम्मादिट्टी मुणेदव्वो स सम्यग्दृष्टिः स्थितिकरणयुक्तो मंतव्यो
[ सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [ ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये ॥ टीका - सम्यrefष्ट निश्चयर टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावमय पनेकर आत्माकी सब शक्ति बढाने से उपबृंहक होता है इसलिये इसके जीवशक्तिके दुर्बलपनेकर किया बंध नहीं है निर्जरा ही है ॥ भावार्थ - सम्यग्दृष्टि उपगूहनगुणकर सहित है । सो उपगूहन नाम छिपानेका है । वह निश्चयनय प्रधानकर ऐसा कहा है कि जो अपना उपयोग सिद्धभक्तिमें लगाये और सब धर्मोंका उपगूहक हो । सो जब सिद्धभक्ति में उपयोग लगाया तब अन्य धर्मपर दृष्टि ही नहीं रही तब सभी धर्म छिपाये । तथा दूसरा नाम उपबृंहण कहा है वह इस तरह है कि जब अपना उपयोग सिद्धोंके स्वरूपमें लगाया तब अपने आत्माकी सब शक्ति
ढाली आत्मा पुष्ट हुआ । सो दुर्बलतासे बंध होता था वह नहीं होता तब निर्जरा ही होती है । और जबतक अंतरायका उदय है तबतक निर्बलता है परंतु इसके अभिप्रायमें निबलाई नहीं है कर्मके उदयको जीतनेका अपनी शक्तिके अनुसार महान् उद्यम
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होता है ॥ २३३ ॥
आगे स्थितीकरण गुणकी गाथा कहते हैं; - [ यः ] जो जीव [ उन्मार्ग गच्छंतं ] उन्मार्ग चलते हुए [ स्वकं अपि ] अपने आत्माको भी [ मार्गे ] मार्गमें [ स्थापयति ] स्थापन करता है [ सः चेतयिता ] वह ज्ञानी [स्थितिकरणयुक्तः ]
१ 'सिवमग्गे 'ति तात्पर्यवृत्तौ पाठः ।