Book Title: samaysar
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Jain Granth Uddhar Karyalay

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Page 365
________________ ३५२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । तहविय सच्चे दत्ते वंभे अपरिग्गहन्त्तणे चेव । कीरइ अज्झवसाणं जं तेण दु वज्झए पुण्णं ॥ २६४ ॥ एवमलीकेऽदत्तेऽब्रह्मचर्ये परिग्रहे चैव । क्रियतेऽध्यवसानं यत्तेन तु बध्यते पापं ॥ २६३ ॥ तथापि च सत्ये दत्ते ब्रह्मणि अपरिग्रहत्वे चैव । क्रियतेऽध्यवसानं यत्तेन तु बध्यते पुण्यं ॥ २६४ ॥ [ बंध एवमयमज्ञानात् यो यथा हिंसायां विधीयतेऽध्यवसायः, तथा असत्यादत्ताब्रह्मपरिग्रहेषु यश्च विधीयते स सर्वोऽपि केवल एव पापबंधहेतुः । यस्तु अहिंसायां यथा विधीयते अध्यवसायः, तथा यश्च सत्यदत्त ब्रह्मापरिग्रहेषु विधीयते स सर्वोऽपि केवल एव पुण्यबंधहेतुः ॥ २६३।२६४ ॥ ख्याति ; - एवमसत्ये चौर्येऽब्रह्मणि परिग्रहे चैव यत्क्रियतेऽध्वसानं तेन पापं बध्यते इति प्रथमगाथा गता । यश्चाचौर्ये सत्ये ब्रह्मचर्ये तथैवापरिग्रहत्वे यत्क्रियतेऽध्यवसानं तेन पुण्यं ध्य इति व्रतातविषये पुण्यपापबंधरूपेण सूत्रभूतगाथाद्वयं गतं ॥ २६३ । २६४ ॥ अतः परमि वसाय कहा था उसीतरह [ अलीके ] असत्य [ अदत्ते ] चोरी आदिसे विना दिये परधनका लेना [ अब्रह्मचर्ये ] खीका संसर्ग [ परिग्रहे ] धनधान्यादिक इनमें [ यत् अध्यवसानं ] जो अध्यवसान [ क्रियते ] किया जाता है [ तेन तु ] उससे तो [ पापं बध्यते ] पापका बंध होता है [ अपि च ] और [ तथा ] उसी तरह [ सत्ये ] सत्यमें [ दत्ते ] दिया हुआ लेनेमें [ ब्रह्मणि] ब्रह्मचर्यमें [ च अपरिग्रहत्वे एव ] और अपरिग्रहमें [ यत् ] जो [ अध्यवसानं ] अध्यवसान [क्रि] किया जाता है [ तेन तु ] उससे [ पुण्यं बध्यते ] पुण्यका बंध होता है ॥ टीका-पूर्वकथित रीति से अज्ञानसे जैसे हिंसा में अध्यवसाय किया जाता है उसी तरह अदत्त अब्रह्म परिग्रह इनमें जो अध्यवसाय किया जाय तो वह सभी केवल एक पापबं - काही कारण है । तथा जैसे अहिंसा में अध्यवसाय किया जाता है उसीतरह सत्य दत्त ब्रह्मचर्य अपरिग्रह इनमें भी अव्यवसाय किया जाय वह सभी एक पुण्यबंधका ही कारण है ॥ भावार्थ – जैसा हिंसा में अध्यवसाय पापबंधका कारण कहा है उसीतरह असत्य अदत्त अब्रह्म परिग्रह इनमें अध्यवसाय पापबंधका कारण है । तथा जैसे अहिंसामें अवसाय पुण्यबंधका कारण है उसीतरह सत्य दत्त ब्रह्मचर्य अपरिग्रहपना इनमें भी पुण्यबंधका कारण है । इसप्रकार पांच पापोंका अभिप्राय तो पापबंध करता है और पांच व्रतरूप एक देश वा सब देशमें अभिप्राय वह पुण्यबंध करता है ।। २६३।२६४॥

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