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अधिकारः ७ ]
समयसारः ।
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कथममव्येनाश्रियते व्यवहारनयः ? इति चेत्;वदसमिदीगुत्तीओ सीलतवं जिणवरेहि पण्णत्तं । कुव्वतोवि अभवो अण्णाणी मिच्छदिट्ठी दु ॥ २७३ ॥ व्रतसमितिगुप्तयः शीलतपो जिनवरैः प्रज्ञप्तं । कुर्वन्नप्यभव्योऽज्ञानी मिथ्यादृष्टिस्तु ॥ २७३ ॥
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शीलतपः परिपूर्ण त्रिगुप्तिपंचसमितिपरिकलितमहिंसादिपंच महाव्रतरूपं व्यवहारचा - रित्रं, अभव्योऽपि कुर्यात् तथापि स निश्चारित्रोऽज्ञानी मिथ्यादृष्टिरेव निश्चयचारित्रहेतुभूतज्ञानश्रद्धाशून्यत्वात् ॥ २७३ ॥
ष्प्रयोजनः ? इति चेत्, कर्मभिरमुच्यमानेनाभव्येनाप्याश्रियमाणत्वात् ॥ २७२ ॥ वदसमिदीगुत्तीओ सीलतवं जिणवरेहि परिकहिदं व्रतसमितिगुप्तिशीलतपश्चरणादिकं जिनवरैः प्रज्ञप्तं कथितं कुव्वतोवि अभव्वो अण्णाणी मिच्छदिट्ठीओ मंदमिथ्यात्वमंदकषायोदये सति कुर्वन्नप्यभव्यो जीवस्त्वज्ञानी भवति मिध्यादृष्टिश्च भवति । कस्मात् ? इति चेत्, मिथ्यात्वादिसप्तप्रकृत्युपशमक्षयोपशमक्षयाभावात् शुद्धात्मोपादेयश्रद्धानाभावात् इति ॥ २७३ ॥ अथ तस्यैकादशांगश्रुतज्ञानमस्ति कथमज्ञानी ? इति चेत्; - मोक्खं
एक अपना स्वाभाविक भाव है वह निश्चयका विषय है इसलिये निश्चयनय आत्माश्रित है । अध्यवसान भी व्यवहारनयका ही विषय है इसलिये अध्यवसानका त्याग है वह व्यवहारनयका ही त्याग है । सो निश्चयनयको प्रधानकर व्यवहारनयके त्यागका उपदेश है क्योंकि जो निश्चयके आश्रय प्रवर्तते हैं वे तो कर्मसे छूटते हैं और जो एकांतसे व्यवंहारनयके ही आश्रय प्रवर्त रहे हैं वे कर्मसे कभी नहीं छूटते ।। २७२ ॥
आगे पूछते हैं कि अभव्य जीव व्यवहारनयको कैसे आश्रय करता है ? ऐसा पूछनेपर उत्तर कहते हैं; – [ व्रतसमितिगुप्तयः ] व्रत समिति गुप्ति [ शीलतपः ] शील तप [ जिनवरैः ] जिनेश्वर देवने [ प्रज्ञप्तं ] कहे हैं उनको [ कुर्वन्नपि ] करता हुआ भी [ अभव्यः ] अभव्य जीव [ अज्ञानी मिथ्यादृष्टिः तु ] अज्ञानी मिध्यादृष्टि ही है । टीका - शीलतपकर परिपूर्ण तीन गुप्ति पांच समितिकर संयुक्त, अहिंसादिक पांच महाव्रतरूप ऐसे व्यवहार चारित्रको अभव्य भी करता ( पालता ) है तौभी वह अभव्य चारित्रकर रहित ही है अज्ञानी मिध्यादृष्टि ही है क्योंकि निश्चयचारित्रका कारण जो स्वस्वरूपका ज्ञान श्रद्धान उसकर शून्यपन उसके है | भावार्थ- - अभव्य जीव महाव्रत समिति गुप्तिरूप व्यवहार पाले तौभी निश्चय सम्यक ज्ञान श्रद्धानके विना वह सम्यक् चारित्र नाम नहीं पाता । इसलिये वह अज्ञानी मिध्यादृष्टि ही रहता है ॥ २७३ ॥