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अधिकारः ७] समयसारः।
३६७ तस्य धर्मश्रद्धानमस्तीति चेत् ;
सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो य फासेदि । धम्म भोगणिमित्तं ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं ॥ २७५ ॥
श्रद्दधाति च प्रत्येति च रोचयति च तथा पुनश्च स्पृशति ।
धर्म भोगनिमित्तं न तु स कर्मक्षयनिमित्तं ॥ २७५ ॥ अभव्यो हि नित्यकर्मफलचेतनारूपं वस्तु श्रद्धत्ते, नित्यज्ञानचेतनामात्रं न तु श्रद्धत्ते नित्यमेव भेदविज्ञानानहत्वात् । ततः स कर्ममोक्षनिमित्तं ज्ञानमात्रं भूतार्थ धर्म न श्रद्धत्ते भोगनिमित्तं शुभकर्ममात्रमभूतार्थमेव श्रद्धत्ते । तत एवासौ अभूतार्थधर्मश्रद्धानप्रत्ययनपुण्यरूपधर्मादिश्रद्धानमस्तीति चेत् ;-सद्दहदि य श्रद्धत्ते च पत्तेदि य ज्ञानरूपेण प्रत्येति च प्रतीति परिच्छित्तिं करोति रोचेदि य विशेषश्रद्धानरूपेण रोचते च तह पुणोवि फासेदिय तथा पुनः स्पृशति च अनुष्ठानरूपेण । कं? धम्म भोगणिमित्तं अहमिंद्रादिपदवीकारणत्वादिति मत्वा भोगाकांक्षारूपेण पुण्यरूपं धर्म ण हु सो कम्मक्खयणि
आगे शिष्य फिर कहता है कि उस अभव्यके धर्मका तो श्रद्धान होता है वह कैसे निषेध करते हो ? उसका उत्तर कहते हैं;-[ सः ] वह अभव्य जीव [धर्म] धर्मको [ श्रद्दधाति च] श्रद्धान करता है [ प्रत्येति च] प्रतीति करता है रोचयति च] रुचि करता है [ पुनश्च ] और [स्पृशति ] स्पर्शता है वह [भोगनिमित्तं] संसारभोगके निमित्त जो धर्म है उसीको श्रद्धान आदि करता है [तु] परंतु [कर्मक्षयनिमित्तं] कर्मक्षय होनेका निमित्तरूप धर्मका [न ] श्रद्धान आदि नहीं करता॥टीका-अभव्य जीव नित्य ही कर्मफल चेतनारूप वस्तुकी श्रद्धा करता है परंतु नित्य ज्ञान चेतनामात्र वस्तुका नहीं श्रद्धान करता क्योंकि अभव्य जीव नित्य ही आप परके भेद ज्ञानके योग्य नहीं है । इसलिये वह अभव्य ज्ञानमात्र सत्यार्थ धर्म जो कि कर्मक्षयका निमित्त है उसको नहीं श्रद्धान करता परंतु शुभ कर्ममात्र असत्यार्थ धर्म जो भोगोंका निमित्त है उसको श्रद्धान करता है । इसीलिये यह अभव्य अभूतार्थ धर्मका श्रद्धान प्रतीति रुचि स्पर्शन इनकर ऊपरके अवेयकतकके भोगमात्रोंको पाता है परंतु कर्मसे कभी नहीं छूटता। इसलिये इसके सत्यार्थ धर्मके श्रद्धानका अभाव होनेसे सञ्चा श्रद्धान भी नहीं है । ऐसा होनेपर निश्चयनयमें व्यवहारनयका निषेध युक्त ही है। भावार्थ-अभव्य जीव कर्मफल चेतनाको जानता है परंतु ज्ञानचेतनाको नहीं जानता क्योंकि इसके भेदज्ञान होनेकी योग्यता नहीं है इस कारण शुद्ध आत्मीक धर्मका श्रद्धान इसके नहीं है । शुभ कर्मको ही धर्म समझ श्रद्धान करता है उसका फल प्रैवेयकतकके भोग पाता है परंतु कर्मका क्षय नहीं होता। इसलिये इसके सत्यार्थ धर्मकाभी श्रद्धान