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३९० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
[ मोक्षकलक्षणलक्ष्यत्वात् , समस्तसहक्रमप्रवृत्तानंतपर्यायाविनाभावित्वाचैतन्यस्य चिन्मात्र एवात्मा निश्चेतव्यः, इति यावत् । बंधस्य तु आत्मद्रव्यसाधारणा रागादयः स्खलक्षणं । न च रागादय आत्मद्रव्यासाधारणतां बिभ्राणाः प्रतिभासंते नित्यमेव चैतन्यचमत्कारादतिरिक्तत्वेन प्रतिभासमानत्वात् । न च यावदेव समस्तवपर्यायव्यापि चैतन्यं प्रतिभाति ? रागादीनंतरेणापि चैतन्यस्यात्मलाभसंभावनात् । यत्तु रागादीनां चैतन्येन सहैवोत्प्लवनं तञ्चेत्यचेतकभावप्रत्यासत्तरेव नैकद्रव्यत्वात् , चेत्यमानस्तु रागादिरात्मनः प्रदीप्यमानो घटादिः प्रदीपस्य प्रदीपकतामिव चेतकतामेव प्रथयेन्न पुना रागादीनां, एवमपि तयोरत्यंतप्रत्यासत्त्या भेदसंभावनाभावनादिरस्त्येकत्वव्यामोहः स तु प्रज्ञयैव छिद्यत एव । "प्रज्ञा छेत्री शितेयं कथमपि निपुणैः पातिता सावधानैः सूक्ष्मेऽतःसंधिबंधे निपतति मिथ्यात्वरागादिकं, ताभ्यां पृथक् कृतौ । केन ? करणभूतेन प्रज्ञाछेदनकेन, शुद्धात्मानुभूतिलक्षणभेदज्ञानरूपा प्रज्ञैव छेत्र्येव छुरिका तया एवेत्यर्थः । छिन्नौ संतौ नानात्वमापन्नौ ॥
चैतन्यके साथ ही उत्पन्न होना दीखता है वह इस ज्ञेयज्ञायकभावके अतिनिकटपनसे दीखता है एक द्रव्यपनसे नहीं है । वहां ज्ञेयरूप ज्ञानमें आतेहुए जो रागादिक हैं वे आत्माके ज्ञायकपनको ही विस्तारते हैं रागादिकपनको नहीं विस्तारते, जैसे दीपकके घटादिक प्रकाशने योग्य होते प्रदीपकपनको ही विस्तारते हैं घटादिकपनको नहीं विस्तारते उसतरह जानना । ऐसा होनेपर भी आत्मा और बंध दोनोंके अत्यंत निकटपनकर भेदकी संभावनाका अभाव है अर्थात् भेद नहीं दीखता । इसलिये इस अज्ञानीके अनादिकालसे एकपनका भ्रम है । ऐसा भ्रम प्रज्ञाकर ही छेदा जाता है ।। भावार्थ-आत्मा और बंध दोनोंको लक्षणभेदसे पहचान बुद्धिरूपी छैनीसे छेद जुदे जुदे करना, क्योंकि आत्मा तो अमूर्तीक है और बंध सूक्ष्म पुद्गलपरमाणुओंका स्कंध है इसलिये ये दोनों जुदे छद्मस्थके ज्ञानमें नहीं आते । एक स्कंध दीखता है इसलिये अनादि अज्ञान है । सो श्रीगुरूओंका उपदेश पाकर इन दोनोंका लक्षण न्यारा न्यारा ही अनुभव कर जानना कि, चैतन्यमात्र तो आत्माका लक्षण है और रागादिक बंधका लक्षण है। ये दोनों भी ज्ञेयज्ञायकभावकी अतिनिकटतासे एकसे हो रहे दीखते हैं, सो तीक्ष्णबुद्धिरूपी छैनी इनके भेद ( जुदे २) करनेका जो शस्त्र है उसको इनकी सूक्ष्मसंधिको देख सावधान ( निष्प्रमाद ) होके पटकना । उसके पड़ते ही दोनों अलग अलग दीखने लगते हैं । तब आत्माको ज्ञानभावमें ही रखना और बंधको अज्ञानभावमें रखना। इसतरह दोनोंको भिन्न करना ॥ अब इस अर्थका कलशरूप १८१ वां काव्य कहते हैं-प्रज्ञा इत्यादि । अर्थ-आत्मा और बंधके जुदे करनेको यह प्रज्ञा तीक्ष्ण छैनी है । जो चतुरपुरुष हैं वे सावधान (प्रमादरहित ) हुए, आत्मा और कर्म इन दोनोंका सूक्ष्म मध्यका संधीका बंधन उसमें किसीप्रकार यत्नकर उस छैनीको ऐसा पटकते हैं कि वहां पडीहुई यह