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३९२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
[मोक्षआत्मबंधौ हि तावन्नियतस्वलक्षणविज्ञानेन सर्वथैव छेत्तव्यौ ततो रागादिलक्षणसमस्त एव बंधो निर्मोक्तव्यः, उपयोगलक्षणशुद्ध आत्मैव गृहीतव्यः ॥ २९५॥ एतदेव किलात्मबंधयोर्दिधाकरणस्य प्रयोजनं यद्वंधत्यागेन शुद्धात्मोपादानं;
कह सो घिप्पइ अप्पा पण्णाए सो उ घिप्पए अप्पा । जह पण्णाइ विहत्तो तह पण्णाएव चित्तव्यो ॥ २९६ ॥
कथं स गृह्यते आत्मा प्रज्ञया स तु गृह्यते आत्मा ।
यथा प्रज्ञया विभक्तस्तथा प्रज्ञयैव गृहीतव्यः ॥ २९६ ॥ ननु केन शुद्धोयमात्मा गृहीतव्यः? प्रज्ञयैव शुद्धोयमात्मा गृहीतव्यः, शुद्धस्यात्मनः खयमात्मानं गृह्णतो विभजत इव प्रज्ञैककरणत्वात् । अतो यथा प्रज्ञया विभक्तस्तथा प्रज्ञयैव गृहीतव्यः ॥ २९६॥ परमानंदलक्षणः सुखसमरसीभावेन शुद्धात्मा च गृहीतव्य इत्यभिप्रायः ॥ २९५ ॥ इदमेवास्मबंधयोढूिधाकरणे प्रयोजनं यद्वंधपरिहारेण शुद्धात्मोपादानमित्युपदिशति;-कह सो घिप्पदि अप्पा कथं स गृह्यते आत्मा 'दृष्टिविषयो न भवत्यमूर्त्तत्वात् ', इति प्रश्नः ? पपणाए सो दु घिप्पदे अप्पा प्रज्ञाया भेदज्ञानेन गृह्यते, इत्युत्तरं । कथं ? इति चेत् जह पण्णाए विभत्तो यथा पूर्वसूत्रे प्रज्ञया विभक्तः रागादिभ्यः पृथक्कृतः तह पण्णाएव चित्तव्वो तथा प्रज्ञयैव गृहीतव्यः । ननु केन शुद्धोऽयमात्मा गृहीतव्यः ? प्रज्ञयैव शुद्धोयमात्मा गृहीतव्यः शुद्धस्यात्मनः स्वयमात्मानं गृण्हतोऽपि विभजत इव प्रज्ञैककरणत्वात् । प्रयोजन है कि बंधका त्यागकर शुद्ध आत्माको ग्रहण करना ॥ भावार्थ-शिष्यने पूछा था कि आत्मा और बंधको द्विधाकर क्या करना ? उसका उत्तर यह दिया कि बंधका तो त्याग करना और शुद्ध आत्माको ग्रहण करना ॥ २९५ ॥ . आगे पूछते हैं कि आत्मा और बंधको प्रज्ञासे तो भिन्न किया परंतु आत्माको ग्रहण किससे किया जाय ? उसके प्रश्नोत्तरकी गाथा कहते हैं;-शिष्य पूछता है कि [स
आत्मा] वह शुद्धात्मा [ कथं ] कैसे [गृह्यते ] ग्रहण किया जा सकता है ? आचार्य उत्तर कहते हैं कि [ स तु] यह शुद्धात्मा [प्रज्ञया] प्रज्ञाकर ही [गृह्यते] ग्रहण किया जाता है । [ तथा ] जिस तरह पहले [प्रज्ञया ] प्रज्ञासे [विभक्तः] भिन्न किया था [ तथा ] उसीतरह [प्रज्ञयैव ] प्रज्ञासे ही [गृहीतव्यः ] ग्रहण करना ॥ टीका-शिष्यका प्रश्न है कि यह शुद्ध आत्मा किस तरह ग्रहण करना ? उसका गुरू उत्तर कहते हैं कि यह शुद्धात्मा प्रज्ञाकर ही ग्रहण करना आप स्वयंशुद्ध आत्माको ग्रहण करता जो शुद्ध आत्मा उसके पहले जैसे भिन्न करताके प्रज्ञा ही एक करण था उसीतरह ग्रहण कर्ताके भी वही प्रज्ञा एक करण है जुदा करण नहीं है। इसलिये जैसे पहले प्रज्ञाकर भिन्न किया था वैसे प्रज्ञाकर ही ग्रहण करना ॥ भावार्थ