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३९४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
[ मोक्षमामेव गृण्हामि । यत्किल गृण्हामि तच्चेतनैकक्रियत्वादात्मनश्चेतये, चेतयमान एव चेतये, चेतयमानेनैव चेतये, चेतयमानायैव चेतये, चेतयमानादेव चेतये, चेतयमाने एव चेतये, चेतयमानमेव चेतये । अथवा न चेतये, न चेतयमानश्चेतये, न चेतयमानेन चेतये, न चेतयमानाय चेतये, न चेतयमानाचेतये, न चेतयमाने चेतये, न चेतयमानं चेतये । किंतु सर्वविशुद्धचिन्मात्रो भावोऽस्मि । “भित्त्वा सर्वमपि स्खलक्षणबलाद्देत्तुं न यच्छक्यते । चिन्मुद्रांकितनिर्विभागमहिमा शुद्धश्चिदेवास्म्यहं । भिद्यते यदि कारकाणि यदि वा धर्मा गुणा वा यदि । भियंतां न भिदास्ति काचन विभौ भावे विशुद्धे चिति ॥ १८२ ॥" २९७॥ न चेतये, न चेतयमानश्चेतये, न चेतयमानेन चेतये, न चेतयमानाय चेतये, न चेतयमानाच्चेतये, न चेतयमाने चेतये, न चेतयमानं चेतये, किं तु सर्वविशुद्धचिन्मात्रो भावोऽस्मि । भित्त्वा सर्वमपि स्वलक्षणबलाद्देत्तुं हि यच्छक्यते चिन्मुद्रांकितनिर्विभागमहिमा शुद्धश्चिदेवास्म्यहं । भिद्यते यदि कारकाणि यदि वा धर्मा गुणा वा यदि भिद्यतां न भिदास्ति काचन विभौ भावे विशुद्धे चिति ॥ २९७ ॥ प्रज्ञया गृहीतव्यो यो द्रष्टा सोहं तु निश्चयतः, अवशेषा चेततेहुएसे चेतता हूं न चेतते हुएमें चेतता हूं न चेतते हुएको चेतता हूं । तो कैसा हूं ? सर्व विशुद्धचैतन्यमात्र भाव हूं। भावार्थ-जिस प्रज्ञाकर आत्माको बंधसे भिन्न किया था उसीकर यह चैतन्यस्वरूप आत्मा मैं हूं अन्य अवशेष भाव हैं वे मुझसे जुदे पर हैं; ऐसे ग्रहण करना। सो अभिन्न छह कारक लगाने । मैं मुझको मुझकर मेरेलिये मुझसे अपनेमें ग्रहण करता हूं। वह ग्रहण करना क्या है ? चेतनकी चित्स्वरूप क्रिया ही है उसकर चेतता हूं-जानता हूं अनुभवता हूं इसतरह लगाना । फिर इन कारकोंके भेदका भी निषेध किया । कि, मैं शुद्ध चैतन्यमात्रभाव हूं सो एक अभेद हूं द्रव्यदृष्टिकर कर्ता कर्म आदि षटकारकका भी भेद मुझमें नहीं है इसलिये नहीं चेतता हूं इत्यादि लगाना । इसतरह बुद्धिकर ग्रहण करना । अब इस अर्थका कलशरूप १८२ वा काव्य कहते हैं;भित्वा इत्यादि । अर्थ-ज्ञानी कहता है कि जो भेदनेको जुदे करनेको समर्थ है उस सबको निजलक्षणके बलसे भेदकर चैतन्यचिन्हसे चिन्हित विभागरहित महिमावाला मैं शुद्ध चैतन्य ही हूं। जो कर्ता कर्म करण संप्रदान अपादान अधिकरण ये छह कारक
और सत्त्व असत्त्व नित्यत्व अनित्यत्व एकत्व अनेकत्व आदिक धर्म व ज्ञान दर्शन आदिक गुण ये भेदरूप हैं तो भेदरूप हों परंतु विशुद्ध समस्तविभावोंसे रहित एक तथा सब गुणपर्यायोंमें व्यापक ऐसे चैतन्यभावमें तो कुछ भेद नहीं है ॥ भावार्थ-जो इस चैतन्यभावसे अन्य अपने स्वलक्षणकर भेदे गये वे तो भेदरूप किये और कारकभेद धर्मभेद हैं तो रहे परंतु शुद्ध चैतन्यमात्रमें कुछ भी भेद नहीं है । शुद्धनयकर आत्माको ऐसा अभेदरूप ग्रहण करना ॥ २९७ ॥