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अधिकारः ८] समयसारः।
३९१ रभसादात्मकर्मोभयस्य । आत्मानं मग्नमंतःस्थिरविशदलसद्धानि चैतन्यपूरे बंधं चाज्ञानभावे नियमितममितः कुर्वती भिन्नभिन्नौ ॥ १८१॥" २९४ ॥ आत्मबंधौ द्विधा कृत्वा किं कर्तव्यं ? इति चेत् ;
जीवो वंधो य तहा छिजंति सलक्खणेहिं णियएहिं । वंधो छेएवव्वो सुद्धो अप्पा य घेत्तव्वो ॥ २९५ ॥
जीवो बंधश्च तथा छियेते स्खलक्षणाभ्यां नियताभ्यां ।
बंधश्छेत्तव्यः शुद्ध आत्मा च गृहीतव्यः ॥ २९५ ॥ ॥ २९४ ॥ आत्मबंधयोधिाकरणे किं साध्यं? इति चेत्-जीवो वंधो य तहा छिजंति सलक्खणेहिं णियएहिं जीवबंधौ द्वौ पूर्वोक्ताभ्यां स्वलक्षणाभ्यां निजकाभ्यां छियेते पूर्ववत् । ततश्छेदानंतरं किं साध्यं ? वंधो छेदेदव्यो विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावपरमात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपनिश्चयरत्नत्रयात्मकभेदज्ञानछुरिकया मिथ्यात्वरागादिरूपो बंधश्छेत्तव्यः शुद्धात्मनः सकाशात्पृथक्कर्तव्यः । सुद्धो अप्पा य घेत्तव्वो वीतरागसहजछैनी शीघ्र ही सब तरहसे भिन्नकर देती है । वह आत्माको तो अंतरंगमें स्थिर और स्पष्ट प्रकाशरूप दैदीप्यमान तेजवाले चैतन्यके प्रवाहमें मग्न करती है तथा बंधको अज्ञानभावमें निश्चल नियमसे कर देती है ॥ भावार्थ-यहांपर आत्मा और बंधका जुदा जुदा करनारूप कार्य है उसका कर्ता आत्मा है । उसमें भी करणके विना कर्ता किससे कार्य करे ? इसलिये करण भी चाहिये। निश्चयनयसे तो कर्तासे जुदा करण होता नहीं है। इसलिये आत्मासे अभिन्न यह बुद्धि ही इस कार्यमें करण है । आत्माके अनादि बंध ज्ञानावरणादि कर्म हैं उनका कार्य भावबंध तो रागादिक हैं और नोकर्म शरीरादिक हैं । सो बुद्धिकर आत्माको शरीरसे, ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्मसे तथा रागादिक भावकमसे भिन्न एक चैतन्यभावमात्र अनुभवकर ज्ञानमें ही लीन रखना भिन्न करना है । इसीसे सब कर्मोंका नाश हो जानेसे सिद्धपदको प्राप्त हो जाता है ऐसा जानना ॥ २९४ ॥
आगे फिर पूछते हैं कि आत्मा और बंधको द्विधा कर क्या करना ? ऐसा पूछनेपर उत्तर कहते हैं;-[जीवः] जीव [च] और [ बंधः ] बंध इन दोनोंको [नियताम्यां ] निश्चित [स्वलक्षणाभ्यां ] अपने २ लक्षणोंकर [ तथा ] इसतरह [छियेते] भिन्न करना कि [ बंधः छेत्तव्यः] बंध तो छिदकर भिन्न हो जाय [च] और [ आत्मा ग्रहीतव्यः ] आत्मा ग्रहण कियाजाय ॥ भावार्थ-आत्मा
और बंध इन दोनोंको पहले तो अपने २ निश्चित लक्षणके ज्ञानकर सब तरह ही भिन्न करना, पीछे रागादिक लक्षणवाले सभी बंधको तो छोडना तथा उपयोग लक्षणवाले अकेले शुद्ध आत्माको ही ग्रहण करना । यही निश्चयकर आत्मा और बंधके द्विधा करनेका