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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
[बंधरायमि य दोसहिल य कसायकम्मेसु चेव जे भावा । तेहिं दु परिणमंतो रायाई बंधदि पुणोवि ॥ २८१ ॥
रागे च दोषे च कषायकर्मसु चैव ये भावाः ।
तैस्तु परिणममानो रागादीन् बध्नाति पुनरपि ॥ २८१ ॥ यथोक्तं वस्तुस्वभावमजानंस्त्वज्ञानी शुद्धखभावादासंसारं प्रच्युत एव । ततः कर्मविपाकप्रभवै रागद्वेषमोहादिभावैः परिणममानोऽज्ञानी रागद्वेषमोहादिभावानां कर्ता भवन् बध्यत एवेति प्रतिनियमः ॥ २८१ ॥ णेन स तत्त्वज्ञानी तेषां रागादिभावानां कर्ता न भवतीति ॥२८०॥ अज्ञानी जीवः शुद्धस्वभावमास्मानमजानन् रागादीन् करोति ततः स भावरागादिजनकनवतरकर्मणां कर्ता भवतीत्युपदिशति;रागमि य दोसह्मि य कसायकम्मसु चेव जे भावा रागद्वेषकषायरूपे द्रव्यकर्मण्युदयागते सति स्वस्वभावच्युतस्य तदुदयनिमित्तेन ये जीवगतरागादिभावाः परिणामा भवंति । तेहिं दु परिणममाणो रागादी बंधदि पुणोवि तैः कृत्वा रागादिरहमित्यभेदेनाहमिति प्रत्ययेन कृत्वा परिणमन् सन् पुनरपि भाविरागादिपरिणामोत्पादकानि द्रव्यकर्माणि बध्नाति ततस्तेषां रागादीनामज्ञानी जीवः कर्ता भवतीति ॥ २८१ ॥ तमेवार्थं दृढयति;-पूर्वआप ज्ञानी हुआ उन भावोंका कर्ता नहीं होता उदयमें आयेहुए फलों का ज्ञाता ही है ।। आगे कहते हैं कि अज्ञानी ऐसा वस्तुका स्वभाव नहीं जानता इसलिये रागादि भावोंका कर्ता होता है इसकी सूचनाका १७७ वां श्लोक कहा है-इति वस्तु इत्यादि । अर्थअज्ञानी ऐसे अपने वस्तुस्वभावको नहीं जानता इसलिये वह अज्ञानी रागादिक भावौको अपने करता है, इस कारण उन ( रागादिकों ) का करनेवाला ( करता ) होता है । ॥ २८०॥ ___ अब इस अर्थकी गाथा कहते हैं;-[रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु चैव] राग द्वेष और कषायकर्म इनके होनेपर [ये भावाः ] जो भाव होते हैं [तैस्तु] उनकर [ परिणममानः ] परिणमता हुआ अज्ञानी [रागादीन् ] रागादिकोंको [पुनरपि] वार बार [बध्नाति ] बांधता है ॥ टीका-जैसा वस्तुका स्वभाव कहा गया है वैसे स्वभावको नहीं जानताहुआ अज्ञानी अपने शुद्धस्वभावसे अनादि संसारसे लेकर च्युत ( छूटा हुआ ) ही है इस कारण कर्मके उदयसे हुए जो राग द्वेष मोहादिक भाव हैं उनकर परिणमता अज्ञानी राग द्वेष मोहादि भावोंका कर्ता हुआ कर्मोंकर बंधता ही है ऐसा नियम है ॥ भावार्थ-अज्ञानी वस्तुका स्वभाव तो यथार्थ जानता नहीं है परंतु कर्मके उदयकर जैसा भाव हो उसको अपना समझ परिणमता है तब उन भावोंका कर्ता हुआ आगामी बार बार कर्म बांधता है यह नियम है ॥ २८१ ॥