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अधिकारः ७] समयसारः।
३६३ स्वपरयोरविवेके सति जीवस्याध्यवसितिमात्रमध्यवसानं । तदेव च बोधनमात्रत्वाद्बुद्धिः । व्यवसानमात्रत्वात् व्यवसायः । मननमात्रत्वान्मतिज्ञानं । चेतनामात्रत्वाचित्तं । चितो भवनमात्रत्वाद् भावः । चितः परिणमनमात्रत्वात् परिणामः । “सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनैः तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोप्यन्याश्रयस्त्याजितः । सम्यनिश्चयमेकमेव तदमी निष्कंपमाक्रम्य किं शुद्धज्ञानघने महिग्नि न निजे बघ्नंति संतो धृति ॥ १७३॥" २७१ ॥
कथं ? इति चेत् , यथेंद्रः शक्रः पुरंदर इति । एवं व्रतैः पुण्यं अवतैः पापमिति कथनेन सूत्रद्वयं पूर्वमेव व्याख्यातं तस्यैव सूत्रस्य विशेषविवरणार्थं बाह्यं वस्तु रागाद्यध्यवसानकारणं रागाद्यध्यवसानं तु बंधकारणमिति कथनमुख्यत्वेन त्रयोदश गाथा गताः, इति समुदायेन पंचदशसूत्रैश्चतुर्थस्थलं समाप्तं ॥ २७१ ॥ अतः परमभेदरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिरूपेण निश्चयनयेन
जाननेमात्रपनसे मति है, वही विज्ञप्ति मात्रपनसे विज्ञान है, वही चेतनमात्रपनसे चित्त है, वही चेतनके भवनमात्रपनसे भाव है और वही परिणमनमात्रपनसे परिणाम है । ये सब ही एकार्थ हैं । भावार्थ-ये बुद्धि आदि आठ नाम कहे हैं वे सभी चेतन आत्माके परिणाम हैं सो जबतक आप परका भेदज्ञान न हो तबतक परमें
और अपनेमें एकपनेके निश्चयरूप बुद्धि आदिक होते हैं वेही अध्यवसान नामसे कहे जाते हैं। आगे अगले कथनकी सूचनिकाके अर्थरूप १७३ वां काव्य कहते हैं जो अध्यवसान त्यागने योग्य कहा है वहां ऐसी संभावना है कि व्यवहारका त्याग कराया है निश्चयका ग्रहण कराया है ऐसा कहते हैं-सर्वत्रा इत्यादि । अर्थ-सभी वस्तु
ओंमें सब अध्यवसान है वह जिन भगवानने त्यागने योग्य कहा है सो आचार्य कहते हैं कि हम ऐसा मानते हैं कि परके आश्रयसे प्रवर्तनेवाला सभी व्यवहार छुड़ाया है। इसलिये हम उपदेश करते हैं कि जो सत्पुरुष हैं वे सम्यक् प्रकार एक निश्चयको ही जिसतरह होसके उसतरह निश्चल अंगीकार करके शुद्ध ज्ञानघनस्वरूप अपनी आत्मस्वरूप महिमामें स्थिरता क्यों नहीं धारते ? ॥ भावार्थ-जिनेश्वरदेवने अन्य पदार्थोंमें आत्मबुद्धिरूप अध्यवसान छुड़ाया है सो यह पराश्रित सभी व्यवहार छुड़ाया है ऐसा जानना । इसकारण शुद्धज्ञानस्वरूप अपने आत्मामें स्थिरता रखो ऐसा शुद्धनिश्चयके ग्रहणका उपदेश है । आचार्यने आश्चर्य भी किया है कि जब भगवानने अध्यवसानको छुड़ाया तो अब सत्पुरुष इसको छोड अपने स्वरूपमें क्यों नहीं ठहरते ? यह हमें अचंभा है ॥ २७१ ॥
१निश्चितिरित्यर्थः।