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[बंध
रायचन्द्रजैमशास्त्रमालायाम् । बुद्धी ववसाओवि य अज्झवसाणं मई य विण्णाणं । एकटमेव सव्वं चित्तं भावो य परिणामो ॥ २७१ ॥
बुद्धिर्व्यवसायोऽपि च अध्यवसानं मतिश्च विज्ञानं । एकार्थमेव सर्वं चित्तं भावश्च परिणामः ॥ २७१ ॥
जो संकप्पवियप्पो ता कम्मं कुणदि असुहसुहजणयं ।
अप्पसरूवा रिद्धी जाव ण हियए परिप्फुरइ॥ यावत्संकल्पविकल्पौ तावत्कर्म करोत्यशुभशुभजनकं । आत्मस्वरूपा ऋद्धिः यावत् न हृदये परिस्फुरति ॥ यावत्कालं बहिर्विषये देहपुत्रकलत्रादौ ममेतिरूपं संकल्पं करोति अभ्यंतरे हर्षविषादरूपं विकल्पं च करोति तावत्कालमनंतज्ञानादिसमृद्धिरूपमात्मानं हृदये न जानाति । यावत्कालमित्थंभूत आत्मा हृदये न परिस्फुरति, तावत्कालं शुभाशुभजनकं कर्म करोतीत्यर्थः । अथाध्यवसानस्य नाममालामाह:-बोधनं बुद्धिः, व्यवसानं व्यवसायः. अध्यवसानमध्यवसायः. मननं पर्यालोचनं मतिश्च, विज्ञायते अनेनेति विज्ञानं, चिंतनं चित्तं, भवनं भावः, परिणमनं परिणामः, इति शब्दभेदेऽपि नार्थभेदः-किं तु सर्वोऽपि समभिरूढनयापेक्षयाऽध्यवसानार्थ एव ।
वे नहीं लिप्त होते ॥ भावार्थ-यह अध्यवसान है कि मैं परको मारता हूं तथा मैं परद्रव्यको जानता हूं ऐसा जबतक आत्माके रागादिकके तथा आत्माके ज्ञेयरूप अन्य. द्रव्यके भेद न जाने तबतक वह अध्यवसान प्रवर्तता है। वह भेदज्ञानके विना मिथ्याज्ञानरूप है, मिथ्यादर्शनरूप है तथा मिथ्याचारित्ररूप है । ऐसे तीनप्रकार प्रवर्तता है। जिनके यह नहीं है वे मुनिकुंजर हैं, वे ही आत्माको सम्यक् जानते हैं सम्यक् श्रद्धान करते हैं सम्यक् आचरते हैं । इसलिये अज्ञानके अभावसे सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप हुए कर्मोंसे लिप्त नहीं होते ॥ २७॥
आगे पूछते हैं कि अध्यवसान कईवार कहते आरहे हैं वह अध्यवसान क्या है ? इसका स्वरूप अच्छीतरह समझनेमें नहीं आया, ऐसा पूछनेपर अध्यवसानका स्वरूप प्रगटकर दिखलाते हैं;-[बुद्धिः ] बुद्धि [व्यवसायः ] व्यवसाय [ अपि च ]
और [ अध्यवसानं ] अध्यवसान [च ] और [ मतिः] मति [विज्ञानं ] विज्ञान [चित्तं] चित्त [भावः ] भाव [च ] और [ परिणामः ] परिणाम [सर्व ] ये सब [ एकार्थमेव ] एकार्थ ही हैं नामभेद है इनका अर्थ जुदा नहीं है। टीका-अपना और परका दोनोंका भेदज्ञान न होनेसे जो जीवकी निश्चिति होना वह अध्यवसान है । वही बोधनमात्रपनसे बुद्धि है, वही निश्चयमात्रपनसे व्यवसाय है, वही १ नेयमात्मख्यातौ गाथा नात आत्मख्यातिव्याख्येतस्याः ॥