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३६० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
[ बंधएदाणि णत्थि जेसिं अज्झवसाणाणि एवमादीणि । ते असुहेण सुहेण व कम्मेण मुणी ण लिप्पंति ॥ २७० ॥
एतानि न संति येषामध्यवसानान्येवमादीनि ।
तेऽशुभेन शुभेन वा कर्मणा मुनयो न लिप्यंति ॥ २७० ॥ __एतानि किल यानि त्रिविधान्यध्यवसानानि समस्तान्यपि शुभाशुभकर्मबंधनिमित्तानि स्वयमज्ञानादिरूपत्वात् । तथाहि, यदिदं हिनस्मीत्याद्यध्यवसानं तत्त्वज्ञानमयत्वेन आअथ निश्चयेन परद्रव्याद्भिन्नोऽपि यस्य मोहस्य प्रभावात् आत्मानं परद्रव्ये योजयति स मोहो येषां नास्ति त एव तपोधना इति प्रकाशयति;-एदाणि णत्थि जेसिं अज्झवसा. णाणि एवमादीणि एतान्येवमादीनि पूर्वोक्तानि शुभाशुभाध्यवसानानि कर्मबंधनिमित्तभूतानि न संति येषां ते असुहेण सुहेण य कम्मेण मुणी ण लिप्पंति त एव मुनीश्वराः शुभाशुभकर्मणा न लिप्यते । किं च विस्तरः, शुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपं निश्चयरत्नत्रयलक्षणं भेदविज्ञानं यदा न भवति तदाहं जीवान् हिनस्मीत्यादि हिंसाध्यवसानं नाअपनेको लोकाकाशरूप करता है, जानेहुए अलोकाकाशके अध्यवसानकर अपनेको अलोकाकाशरूप करता है। इसतरह अध्यवसानकर अपनेको सब स्वरूप करता है ॥ भावार्थ-यह अध्यवसान अज्ञानरूप है इसलिये अपना परमार्थरूप नहीं जानना । आत्मा आपको अनेक अवस्थारूप करता है उनमें आपा मान प्रवर्तता है । अब इस अर्थका कलशरूप १७२ वां काव्य कहते हैं तथा अगले कथनकी सूचना करते हैंविश्वात् इत्यादि । अर्थ—यह आत्मा सब द्रव्योंसे भिन्न है तौभी जिस अध्यवसायके प्रभावसे अपनेको समस्तस्वरूप करता है वह अध्यवसाय कैसा है ? कि जिसका मूल मोह है । ऐसा अध्यवसाय जिनके नहीं है वे मुनि हैं ॥ २६८।२६९॥ __ आगे कहते हैं कि यह अध्यवसाय जिनके नहीं है वे मुनि कर्मसे नहीं लिप्त होते;[एतानि ] ये पूर्वोक्त अध्यवसाय तथा [एवमादीनि ] इसतरहके अन्य भी [अध्यवसानानि ] अध्यवसान [ येषां] जिनके [न संति ] नहीं हैं [ते मुनयः] वे मुनिराज [ अशुभेन ] अशुभ [ वा ] अथवा [ शुभेन कर्मणा] शुभकर्मसे [न लिप्यंते ] नहीं लिप्त होते ॥ टीका-ये पूर्वोक्त अध्यवसान तीन प्रकारके हैं अज्ञान अदर्शन अचरित्र । ये सभी शुभ अशुभ कर्मबंधके निमित्त हैं क्योंकि ये आप ( स्वयं ) अज्ञानादिरूप हैं। किसतरह हैं सो कहते हैं जो यह मैं परजीवको मारता हूं इत्यादिक अध्यवसाय है वह अज्ञानादिरूप है क्योंकि आत्मा तो ज्ञायक है उस ज्ञायकपनेसे ज्ञप्तिक्रियामात्र ही है इसलिये सद्रूप द्रव्यदृष्टि से किसीसे उत्पन्न नहीं ऐसा नित्यरूप जाननेमात्र ही क्रियावाला है । हनना घातना आदि क्रिया हैं वे रागद्वे
१ अज्ञानादर्शनाचारित्रसंज्ञकानि ।