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अधिकारः ७] समयसारः।
३६१ त्मनः सदहेतुकज्ञप्त्यैकक्रियस्य रागद्वेषविपाकमयीनां हननादिक्रियाणा च विशेषाज्ञानेन विविक्तात्माऽज्ञानादस्ति तावदज्ञानं विविक्तात्माऽदर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं, विविक्तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रं । यत्पुनरेष धर्मों ज्ञायत इत्याद्यध्यवसानं तदप्यज्ञानमयत्वेनात्मनः सदहेतुकज्ञानैकरूपस्य ज्ञेयमयानां धर्मादिरूपाणां च विशेषाज्ञानेन विविक्तात्माज्ञानादस्ति तावदज्ञानं विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं विविक्तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रं । ततो बंधनिमित्तान्येवैतानि समस्तान्यध्यवसानानि । येषामैवेतानि न विद्यते त एव मुनिकुंजराः केचन सदहेतुकज्ञप्त्यैकक्रियं सदहेतुकज्ञायकैकभावं सदहेतुकज्ञानैकरूपं च विविक्तात्मानं जानंतः सम्यकपश्यतोऽनुचरंतश्च स्वच्छस्वच्छंदोघदमंदांतज्योतिषोऽत्यंतमज्ञानादिरूपत्वाभावात् शुभेनाशुभेन वा कर्मणा खलु न लिप्येरन् ॥ २७० ॥ रकोहमित्यादि कर्मोदयाध्यवसानं, धर्मास्तिकायोयमित्यादि ज्ञेयपदार्थाध्यवसानं च निर्विकल्पशुद्धात्मनः सकाशाद्भिन्नं जानातीति । तदा जानन् हिंसाध्यवसानविकल्पेन सहात्मानमभेदेन श्रद्दधाति जानाति अनुचरति च, ततो मिथ्यादृष्टिर्भवति मिथ्याज्ञानी भवति मिथ्याचारित्री भवति । ततः कर्मबंधो भवतीति भावार्थः ॥ २७० ॥ कियंतं कालं परभावानात्मनि योजयतीति चेत्षके उदयमयी हैं। इसतरह आत्मा और घातने आदि क्रियाके भेदको न जाननेसे भिन्न आत्माको नहीं जाना इसलिये मैं परजीवको घातता हूं ऐसा अध्यवसान अज्ञान है । इसीप्रकार भिन्न (न्यारा ) आत्माका न देखना अर्थात् श्रद्धान न होनेसे अध्यवसान मिथ्यादर्शन है । इसीतरह भिन्न आत्माके अनाचरणसे अचारित्र है । यह धर्मद्रव्य मुझसे जाना जाता है ऐसा अध्यवसाय भी अज्ञानादिरूप ही है क्योंकि आत्मा तो ज्ञानमयपनेसे ज्ञानमात्र ही है क्योंकि सद्रूप द्रव्यदृष्टिकर अहेतुक ( जिसका कोई कारण नहीं ऐसा ) ज्ञानमात्र ही एकरूपवाला है । धर्मादिकरूप हैं वे ज्ञेयमय है। ऐसे ज्ञानज्ञेयका विशेष न जाननेसे भिन्न आत्माके अज्ञानसे मैं धर्मको जानता हूं ऐसा भी अज्ञानरूप अध्यवसान है। भिन्न आत्माके न देखनेसे श्रद्धान न होनेकर यह अध्यवसान मिथ्यादर्शन है, और भिन्न आत्माके अनाचरणसे यह अध्यवसान अचारित्र है इसलिये ये सभी अध्यवसान बंधके निमित्त हैं। जिनके ये अध्यवसान विद्यमान नहीं हैं वे ही मुनियोंमें प्रधान हैं उन्हींको मुनिकुंजर कहते हैं ऐसे कोई २ विरले हैं। वे कैसे हैं ? सब अन्यद्रव्यभावोंसे भिन्न आत्मा सत्तारूप द्रव्यदृष्टिकर किसीसे उत्पन्न नहीं हुआ इसलिये अहेतुक एक ज्ञायकभावस्वरूप और सत्ता अहेतुक एक ज्ञानरूप ऐसे आत्माको जानते हैं, उसीको सम्यक् ( भलेप्रकार ) देखते ( श्रद्धान करते ) हैं और उसीको आचरते हैं। फिर वे मुनि निर्मल स्वच्छंद स्वाधीन प्रवृत्तिरूप उदयको प्राप्त अमंदप्रकाशरूप अंतरंग ज्योतिःस्वरूप हैं। इसीकारण अज्ञान आदिके अत्यंत अभावसे शुभ तथा अशुभ कर्मसे
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