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अधिकारः ७]
समयसारः ।
अध्यवसितेन बंधः सत्त्वान् मारयतु मा वा मारयतु । एष बंधसमासो जीवानां निश्चयनयस्य ॥ २६२ ॥
परजीवानां स्वकर्मोदयवैचित्र्यवशेन प्राणव्यपरोपः कदाचिद् भवतु, कदाचिन्मा भवतु । य एव हिनस्मीत्यहंकाररसनिर्भरो हिंसायामध्यवसायः स एव निश्चयतस्तस्य बंधहेतुः, निश्चयेन परभावस्य प्राणव्यपरोपस्य परेण कर्तुमशक्यत्वात् ॥ २६२ ॥
अथाध्यवसायं पापपुण्ययोर्बंधहेतुत्वेन दर्शयति ;
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एवमलिये अदत्ते अवंभचेरे परिग्गहे चेव । कीरइ अज्झवसाणं जं तेण दु वज्झए पावं ॥
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२६३ ॥
बंधसमासो एष प्रत्यक्षीभूतो बंधसमासः बंधसंक्षेपः । तद्विपरीतेन निरुपाधिचिदानंदैकलक्षणनिर्विकल्पसमाधिना मोक्षो भवतीति मोक्षसमासः । केषां ? जीवाणं णिच्छयणयस्स जीवानां निश्चयनयस्येति । एवं जीवितमरणसुखदुःखानि परेषां करोमीत्यध्यवसाय एव बंधकारणं, प्राणव्यपरोपणादिव्यापारो भवतु मा भवतु । एवं सर्वं ज्ञात्वा रागाद्यपध्यानं त्यजनीयमिति व्याख्यानमुख्यत्वेन सूत्रषट्केन तृतीयस्थलं गतं ॥ २६२ ॥ अथ हिंसाध्यवसानं पूर्वमुक्तं तावत् इदानीं पुनः असत्याद्यत्रताध्यवसानैः पापं सत्याद्यध्यवसानैश्च पुण्यबंधो भवतीत्या
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[ वा मा मारयतु] अथवा मत मारो [ जीवानां ] यह जीवोंके [ बंधः ] कर्मबंध [ अध्यवसितेन [ अध्यवसायकर ही होता है ] एषः बंधसमासः ] यह ही बंधका संक्षेप है ॥ टीका - परजीवोंके प्राणों का वियोग ( नाश ) है वह अपने कर्मके उदयकी विचित्रतासे है वह कभी होवे अथवा न होवे परंतु "यह मैं मारता हूं" ऐसा अहंकाररस से भरा हुआ हिंसाका अध्यवसाय ( अभिप्राय ) है वही निश्चयसे उस अभिप्रायवायवाले पुरुषके बंधका कारण है । क्योंकि निश्चयनयकी पक्ष में परका भाव जो प्राणोंका वियोगकरना वह दूसरेकर नहीं किया जासकता ॥ भावार्थ — निश्चय नयकर दूसरेके प्राणोंका वियोग करना दूसरेकर नहीं किया जासकता । उसके कर्मके उदयकी विचित्रतासे कदाचित होता है कभी नहीं भी होता । इसलिये जो ऐसा मानता है - अहंकार करता है " कि मैं परजीवको मारता हूं” यह अहंकाररूप अध्यवसाय अज्ञानमय है । यही हिंसा है क्योंकि अपने विशुद्ध चैतन्य प्राणका घात है । तथा यही बंधका कारण है यह निश्चयनयका मत है । यहां व्यवहारनको गौणकर कहा जानना वह कथंचित् जानना, सर्वथा एकांतपक्ष है वह मिथ्यात्व है ॥ २६२ ॥
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आगे यह जैसे हिंसाका अध्यवसाय कहा है उसीतरह उसीको अन्य कार्यों में भी पुण्यपापके बंधका कारणपनेकर प्रत्यक्ष दिखलाते हैं; - [ एवं ] पहले हिंसाका अध्य