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अधिकारः ७] समयसारः।
३५३ न च बाह्यवस्तु द्वितीयोऽपि बंधहेतुरिति शक्यं वक्तुं;वत्थु पडुच्च जं पुण अज्झवसाणं तु होइ जीवाणं । ण य वत्थुदो दु बंधो अज्झवसाणेण बंधोत्थि ॥ २६५ ॥
वस्तु प्रतीत्य यत्पुनरध्यवसानं तु भवति जीवानां ।
न च वस्तुतस्तु बंधोऽध्यवसानेन बंधोस्ति ॥ २६५ ॥ अध्यवसानमेव बंधहेतुर्न तु बाद्यवस्तु तस्य बंधहेतोरध्यवसानस्य हेतुत्वेनैव चरितार्थत्वात् । तर्हि किमर्थो बाह्यवस्तुप्रतिषेधः? अध्यवसानप्रतिषेधार्थः । अध्यवसानस्य हि बाह्यवस्तु, आश्रयभूतं । न हि बाह्यवस्त्वनाश्रित्य अध्यवसानमात्मानं लभते । यदि बाह्यवस्त्वनाश्रित्यापि अध्यवसानं जायेत तदा यथा वीरसूसुतस्याश्रयभूतस्य सद्भावे वीरदमेव सूत्रद्वयं परिणाममुख्यत्वेन त्रयोदशगाथाभिर्विवृणोति । तद्यथा, बाह्यं वस्तु रागादिपरिणामकारणं परिणामस्तु बंधकारणमित्यावेदयति;-वत्थु पडुच्च जं पुण अज्झवसाणं तु होदि जीवाणं बाह्यवस्तु चेतनाचेतनं पंचेंद्रियविषयभूतं प्रतीत्य आश्रित्य जीवानां तत्प्रसिद्ध रागाद्यध्यवसानं भवति ण हि वत्थुदो दु बंधो न हि वस्तुनः सकाशाद्वंधो भवति । तर्हि केन बंधः ? अज्झवसाणेण बंधोत्ति वीतरागपरमात्मतत्त्वभिन्नेन रागाद्यध्यवसानेन बंधो भवति । वस्तुनः सकाशाद्वंधो कथं न भवतीति चेत्, अन्वयव्यतिरेकाभ्यां __आगे कहते हैं कि जो बाह्य वस्तु है वह बंधका कारण है कि नहीं ? कोई समझेगा कि जैसे अध्यवसान बंधका कारण है वैसे अन्य बाह्य वस्तु भी बंधका कारण है सो ऐसा नहीं है, एक अध्यवसाय ही बंधका कारण है;-[जीवानां तु] जीवोंके [ यत् पुनरध्यवसानं ] जो अध्यवसान है वह [वस्तु] वस्तुको [प्रतीत्य ] अवलंबन करके [ भवति] होता है । [तु वस्तुतः] तथा वस्तुसे [बंधः न च] बंध नहीं है [ अध्यवसानेन ] अध्यवसानकर ही [बंधः अस्ति] बंध है ॥ टीकाअध्यवसान ही बंधका कारण है बाह्य वस्तु बंधका कारण नहीं है । क्योंकि बंधका कारण जो अध्यवसान उसके कारणपनेकर ही बाह्य वस्तुको चरितार्थपना है बाह्य वस्तु तो अध्यवसानका ही कारण है बंधका कारण नहीं है। यहां पूछते हैं कि बाह्य वस्तु बंधका कारण नहीं है तो उसका निषेध किसलिये किया जाता है ? कि बाह्यवस्तुका प्रसंग मत करो त्याग करो । उसका समाधान कहते हैं-अध्यवसानके निषेधकेलिये बाह्य वस्तुका त्याग कराया जाता है क्योंकि बाह्य वस्तु अध्यवसानका आश्रयभूत है बाह्य वस्तुके आश्रय विना अध्यवसान अपने स्वरूपको नहीं पाता नहीं उपजता । यदि बाह्य वस्तुका आश्रय न लेकर भी अध्यवसान उत्पन्न हो तो जैसे सुभटकी माताका पुत्र जो सुभट उसका सद्भाव होनेसे उसका आश्रय लेकर किसीके अध्यवसान होता है कि
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