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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
[बंधजो मण्णदि हिंसामि य हिंसिन्जामि य परेहिं सत्तेहिं । सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ॥ २४७॥
यो मन्यते हिनस्मि च हिंस्ये च परैः सत्त्वैः ।
स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः ॥ २४७ ॥ परजीवानहं हिनस्मि परजीवैहिस्से चाहमित्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानं स तु यस्यास्ति सोऽज्ञानित्वान्मिथ्यादृष्टिः । यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात्सम्यग्दृष्टिः ॥ २४७ ॥
दशकसमुदायेन प्रथमस्थलं गतं ॥ २४२।२४३।२४४।२४५।२४६ ॥ अथ वीतरागस्वस्थभावं मुक्त्वा हिंस्यहिंसकभावेन परिणमनमज्ञानिजीवलक्षणं । तद्विपरीतं संज्ञानिलक्षणमिति प्रज्ञापयति;-जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं सो मूढो
अण्णाणी यो मन्यते जीवानहं हिनस्मि परैः सत्वैरहं हिंस्ये इति च योसौ परिणामः स निश्चितमज्ञानः स एव बंधहेतुः, स परिणामो यस्यास्ति स चाज्ञानी । णाणी एत्तो दु विवरीदो एतस्माद्विपरीतो यो जीवितमरणलाभालाभसुखदुःखशत्रुमित्रनिंदाप्रशंसादिविकल्पविषये रागद्वेषरहितशुद्धात्मभावनासंजातपरमानंदसुखास्वादरूपे वा भेदज्ञाने रतः स ज्ञानीत्यर्थः ॥ २४७ ॥ कर्मराग है जो राग है उसे मुनि अज्ञानमय अध्यवसाय कहते हैं । यही अध्यवसाय नियमसे बंधका कारण है ॥ २४६ ॥ ___ अब मिथ्यादृष्टिके आशयको गाथामें प्रगटरीतिसे कहते हैं;-यः] जो पुरुष [ मन्यते ] ऐसा मानता है कि [हिनस्मि ] मैं पर जीवको मारता हूं [च ] और [परैः सत्वैः ] परजीवोंकर मैं [हिंस्ये] माराजाता हूं पर मुझे मारते हैं [स] वह पुरुष [ मूढः ] मोही है [ अज्ञानी ] अज्ञानी है [तु अतः ] और इससे [विपरीतः] विपरीत [ज्ञानी] ज्ञानी है ऐसा नहीं मानता ॥ टीका-परजीवोंको मैं मारता हूं और परजीवोंकर मैं मारा जारहा हूं ऐसा जिसका निश्चयरूप आशय है वह निश्चयसे अज्ञान हैं । सो ऐसा जिसके अध्यवसाय हो वह अज्ञानी है इस अज्ञानीपनसे ही मिथ्यादृष्टि है। और जिसके ऐसा आशयरूप अज्ञान नहीं है वह ज्ञानीपनसे सम्यग्दृष्टि है । भावार्थ-जिसके ऐसा आशय है कि परजीवको मैं मारता हूं और पर मुझे मारते हैं वह आशय अज्ञान है इसलिये वह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है और जिसके यह आशय नहीं है वह ज्ञानी है सम्यग्दृष्टि है। यहां ऐसा जानना निश्चयनयकर कर्ताका स्वरूप यह है कि आप स्वाधीन जिस भावरूप परिणमे उसको उस भावका कर्ता कहते हैं सो परमार्थसे कोई किसीका मरण नहीं करसकता । जो परकर परका मरण मानता है वह अज्ञानी है । निमित्त नैमित्तिक भावसे कर्ता कहना व्यवहारनयका वचन है उसे यथार्थ मानना सम्यग्ज्ञान है ॥ २४७ ॥