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३४२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
[बंधमरणं हि तावन्जीवानां स्वायुःकर्मक्षयेणैव तदभावे तस्य भावयितुमशक्यत्वात् स्वायुःकर्म च नान्येनान्यस्य हर्तुं शक्यं तस्य स्खोपभोगेनैव क्षीयमाणत्वात् । ततो न कथंचनापि, अन्योऽन्यस्य मरणं कुर्यात् । ततो हिनस्मि हिंस्ये चेत्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानं ॥ २४८।२४९ ॥ जीवनाध्यवसायस्य तद्विपक्षस्य का वार्ता ? इति चेत् ;
जो मण्णदि जीवेमि य जीविजामि य परेहिं सत्तेहिं । सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ॥ २५० ॥
यो मन्यते जीवयामि च जीव्ये चापरैः सत्त्वैः ।
स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः ॥ २५० ॥ परजीवानहं जीवयामि परजीवैर्जीव्ये चाहमित्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानं स तु यस्यास्ति सोऽज्ञानित्वान्मिथ्यादृष्टिः । यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात् सम्यग्दृष्टिः ॥ २५० ॥ कह ते मरणं कदं तेसिं तेषामायुःकर्म च न हरसि त्वं तस्यायुषः स्वोपयोगेनैव क्षीयमामानता है यही अज्ञान है । यह कथन निश्चयनयकी प्रधानतासे है। तथा निमित्तनैमित्तिक भावकर परस्पर पर्यायका उत्पाद व्यय हो उसे जन्म मरण कहते हैं । वहां जिसके निमित्तसे हो उसे ऐसा कहते हैं कि इसने इसको मारा । यह कहना व्यवहार है । यहां ऐसा नहीं समझना कि व्यवहारका सर्वथा निषेध है जो निश्चयको नहीं जानते उनके अज्ञान मेंटनेको कहा है इसको जाननेके वाद दोनों नयोंके अविरोधको जान यथायोग्य नय मानना ॥ २४८।२४९ ॥
फिर पूछते हैं कि मरणके अध्यवसायको अज्ञान कहा वह तो जान लिया परंतु उस मरणका प्रतिपक्षी जो जीवनेका अध्यवसाय उसकी क्या वात हैं ? उसका उत्तर कहते हैं;-[यः] जो जीव [ मन्यते ] ऐसा मानता है कि [जीवयामि ] मैं परजीवोंको जीवित करता हूं [च ] और [ परैः सत्त्वैः च] परजीव भी मुझे [जीव्ये जीवित करते हैं [ स मूढः ] वह मूढ ( मोही ) है [ अज्ञानी ] अज्ञानी है [तु] परंतु [ ज्ञानी ] ज्ञानी [ अतः ] इससे [विपरीतः] विपरीत है ऐसा नहीं मानता इससे उल्टा मानता है ॥ टीका-परजीवोंको मैं जिलाता हूं और परजीव मुझे जिलाते हैं ऐसा निश्चयरूप आशय निश्चयसे अज्ञान है जिसके यह आशय हो वह जीव अज्ञानीपनसे मिथ्यादृष्टि है और जिसके ऐसा अध्यवसाय नहीं है वह ज्ञानीपनसे सम्यग्दृष्टि है ॥ भावार्थ-जो ऐसा मानता है कि मुझे पर जिवाते हैं और मैं परको जिलाता हूं ' १ इयमपि गाथा तात्पर्यवृत्तौ नास्ति ।