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समयसारः।
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अधिकारः ७ ] कथमयमध्यवसायोऽज्ञानं ? इति चेत् ;
आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं । आउं ण हरेसि तुमं कह ते मरणं कयं तेसिं ॥ २४८ ॥ आउक्खयेण मरणं जीवाणां जिणवरेहिं पण्णत्तं । आउंन हरंति तुहं कह ते मरणं कयं तेहिं ॥ २४९ ।।
आयुःक्षयेण मरणं जीवानां जिनवरैः प्रज्ञप्तं । आयुर्न हरसि त्वं कथं त्वया मरणं कृतं तेषां ॥ २४८ ॥ आयुःक्षयेण मरणं जीवानां जिनवरैः प्रज्ञप्तं ।
आयुर्न हरंति तव कथं ते मरणं कृतं तैः ॥ २४९ ॥ अथ कथमयमध्यवसायः पुनरज्ञानं ? इति चेत् ;-आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं आयुःक्षयेण मरणं जीवानां जिनवरैः प्रज्ञप्तं कथितं । आउं ण हरेसि तुम
आगे पूछते हैं कि यह अध्यवसान अज्ञान क्यों है ? उसका उत्तररूप गाथा कहते हैं;-[जीवानां ] जीवोंके [ मरणं ] मरण है वह [आयुःक्षयेण ] आयुकमके क्षयसे होता है ऐसा [ जिनवरैः] जिनेश्वर देवने [ प्रज्ञप्तम् ] कहा है सो हे भाई तू मानता है कि मैं परजीवको मारता हूं यह अज्ञान है क्योंकि [ तेषां ] उन परजीवोंका [ आयुः] आयुकर्म [ त्वं न हरसि ] तू नहीं हरता [ त्वया ] तो तूने [ मरणं ] उनका मरण [ कथं कृतं ] कैसे किया ? । तथा [ जीवानां ] जीवोंका [ मरणं] मरण [आयुःक्षयेण ] आयुकर्मके क्षयसे होता है ऐसा [जिनवरैः ] जिनेश्वरदेवने [ प्रज्ञप्तं ] कहा है परंतु हे भाई तू ऐसा मानता है कि मैं परजीवोंकर मारा जाता हूं यह मानना तेरा अज्ञान है क्योंकि परजीव [तव] तेरा [ आयुः] आयुकर्म [ न हरंति ] नहीं हरते इसलिये [तैः ] उन्होंने [ ते मरणं] तेरा मरण [कथं कृतं ] कैसे किया ॥ टीका-निश्चयकर जीवके मरण है वह अपने आयुकर्मके क्षयसे ही होता है जो आयुका क्षय न हो तो उसके मारनेको कोई समर्थ नहीं हो सकता और अपना आयुकर्म अन्यकर हरा नहीं जासकता आयुकर्म तो अपना उपभोगकर ही क्षयरूप होता है इसलिये अन्य अन्यका मरण किसीतरह भी नहीं करसकता । इसकारण जो ऐसा मानता है (अभिप्रायकरता है ) कि मैं परजीवको मारता हूं तथा परजीव मुझे मारते हैं ऐसा अध्यवसाय निश्चयसे अज्ञान है। भावार्थजो जीवको मान्य हो परंतु मान्यरूप कार्य न हो वही अज्ञान है सो मरण भी अपना परकर किया नहीं होता और आपकर किया परके मरण नहीं होता परंतु यह प्राणी
१ तात्पर्यवृत्तौ नेयं गाथा, आत्मख्यातावेव तत एव नैतस्यास्त्रात्पर्यवृत्तिष्टीका ।