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अधिकारः ६] समयसारः।
३२९ "रुंधन बंधं नवमिति निजैः संगतोऽष्टाभिरंगैः प्राग्बद्धं तु क्षयमुपयन् निर्जरोज्जृभणेन । धर्मश्रवणग्रहणधारणश्रद्धानसंयमविषयसुखव्यावर्तनक्रोधादिकषायनिवर्तनतपोभावनासमाधिमरणानि परंपरादुर्लभानि यतः । तदपि कस्मात् ? तत्प्रतिपक्षभूतानां मिथ्यात्वविषयकषायख्यातिपूजालाभ( नियतसमयपर) दे देता है तबतक अपने घरमें भी पड़ा रहे तो भी उससे ममत्व नहीं है इसलिये उस पुरुषको उस द्रव्यका बंधन नहीं है दूसरेको देने सरीखा ही है । उसीतरह ज्ञानी कर्म द्रव्यको जानता है उससे ममत्व नहीं है सो मौजूद होनेपर भी निर्जरा समान ही है ऐसा जानना ॥ तथा ये निःशंकित आदिक आठ गुण व्यवहारनयकर व्यवहार मोक्षमार्गपर लगालेना । जिन वचनमें संदेह नहीं करना भय आनेपर व्यवहार दर्शन ज्ञान चारित्रसे चिगना नहीं वह निःशंकितपना है १, संसारदेह भोगकी वांछा कर तथा परमतकी वांछा कर व्यवहार मोक्षमार्गसे नहीं चिगना वह निष्कांक्षितपना है २, अपवित्र दुर्गंधादि वस्तुके निमित्तसे व्यवहार मोक्षमार्गकी प्रवृत्तिमें ग्लानि न करना वह निर्विचिकित्सा है ३, देव शास्त्र गुरु लोककी प्रवृत्ति अन्यमतादिके तत्त्वार्थके स्वरूपमें मूढता नहीं रखना यथार्थ जान प्रवर्तना वह अमूढदृष्टि है ४, धर्मात्मामें कर्मके उदयसे दोष हो जाय तो उसे गौण करे और व्यवहार मोक्षमार्गकी प्रवृत्तिको बढावे वह उपगूहन अथवा उपबृंहण है ५, व्यवहार मोक्षमार्गसे चिगते हुएको स्थिर करना वह स्थितीकरण है ६, व्यवहारमोक्षमार्गमें प्रवर्तनेवालेसे विशेष अनुराग (प्रीति) होना वह वात्सल्य है ७, और व्यवहार मोक्षमार्गका अनेक उपायोंसे उद्योत करना वह प्रभावना है ८। ये व्यवहार नयको प्रधान करके कहे गये हैं सो यहां निश्चय प्रधान कथनमें इनकी गौणता है । सम्यग्ज्ञानरूप प्रमाणदृष्टि में दोनों ही प्रधान हैं, स्याद्वादमतमें कुछ विरोध नहीं है । अब निर्जरा अधिकार पूर्ण हुआ सो निर्जराके स्वरूपको यथार्थ जाननेवाला तथा कर्मका नवीन बंध रोक निर्जरा करनेवाला जो सम्यग्दृष्टि उसकी महिमा कहते हैं-रुंधन इत्यादि । अर्थ-सम्यग्दृष्टि जीव आप स्वयमेव अपने निजरसमें मस्त हुआ आदि मध्य अंतकर रहित सर्वव्यापक एक प्रवाहरूप धारावाही ज्ञानरूप होकर आकाशका मध्यरूप जो अतिनिर्मल रंगभूमि उसमें अवगाहन (प्रवेश ) कर नृत्य करता है । कैसा सम्यग्दृष्टि है ? जो नवीन बंधको तो पूर्वोत्तरीतिसे रोकता है और जो पहले बांधा था उसको अपने अष्ट अंगों सहित निर्जराके प्रगट होनेसे नाश कर डालता है ॥ भावार्थ-सम्यग्दृष्टिके शंकादिक कर किया नवीन बंध तो होता ही नहीं और आठ अंगोंकर सहित होनेसे निर्जराका उदय है उसकर पूर्ववंधका नाश होता है । इसलिये वह एक प्रवाहरूप ज्ञानरूपीरसको आप पीकर मद पीनेवालेकी तरह ( जैसे कोई मद पीकर मग्न हुआ नृत्यके अखाडेमें नृत्यकरे वैसे ) निर्मल आकाशरूप रंगभूमिमें नृत्यं करता है। यहां कोई प्रश्न करे कि-सम्यग्दृष्टिके निर्जरा होना तो कहते आरहे
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