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अधिकारः ६] समयसारः।
३२१ सदा विंदति ॥ १६० ॥ टंकोत्कीर्णस्वरसनिचितज्ञानसर्वस्वभाजः सम्यग्दृष्टेर्यदिह सकलं भंति लक्ष्माणि कर्म । तत्तस्यास्मिन्पुनरपि मनाकर्मणो नास्ति बंधः पूर्वोपात्तं तदनुभवतो निश्चितं निर्जरैव ॥१६१॥" २२८॥
जो चत्तारिवि पाए छिंददि ते कम्मबंधमोहकरे । सो णिस्संको चेदा सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो ॥ २२९॥
यश्चतुरोपि पादान् छिनत्ति तान् कर्मबंधमोहकरान् । स निश्शंकश्वेतयिता सम्यग्दृष्टितिव्यः ॥ २२९ ॥
घोरपरीषहोपसर्गे प्राप्तेपि निश्शंकाः शुद्धात्मस्वरूपे निष्कंपाः संतः शुद्धात्मभावनोत्थवीतरागसुखानंदतृप्ताश्च परमात्मस्वरूपान्न प्रच्यवंते पांडवादिवत् ॥ २२८ ॥ अथानंतरं वीतरागसम्यग्दृष्टेनिश्शंकाद्यष्टगुणाः नवतरबंध निवारयति ततः कारणाद्वंधो नास्ति किं तु संवरपूर्विका निर्जरैव भवतीति प्रतिपादयति;-जो चत्तारिवि पाए छिंददि ते कम्ममोहबाधकरे यः कर्ता मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगलक्षणान् संसारवृक्षस्य मूलभूतान् चिन्ह हैं वे सब कर्मोंको हनते हैं-निर्जरा करते हैं । इस कारण फिर भी इसका उदय होनेसे नवीन कर्मका कुछ भी बंध नहीं होता जिस कर्मका पहले बंध हुआ था उसके उदयको भोगते हुएके उसकी नियमसे निर्जरा ही होती है । कैसा सम्यग्दृष्टि है ? टंकोत्कीणवत् एक स्वभावरूप जो अपना निजरस उससे परिपूर्ण हुए ज्ञानके सर्वखका भोगनेवाला है—आस्वादक है ॥ भावार्थ-सम्यग्दृष्टि पहले बांधी हुई भयादि प्रकृतियोंके उदयको भोगता है तो भी उसके निःशंकितादि गुण प्रवर्तते हैं वे पूर्वकर्मोंकी निर्जरा करते हैं । और शंकादिकर किया बंध नहीं होता ॥ २२८ ॥
आगे इस कथनको गाथामें कहते हैं उसमें भी पहले निशंकित अंगका स्वरूप कहते हैं;[यः] जो [चेतयिता ] आत्मा [कर्मबंधमोहकरान् ] कर्मबंधके कारण मोहके करनेवाले [ तान् चतुरोपि पादान् ] मिथ्यात्वादि भावरूप चारों पादोंको [नि:शंकः] निःशंक हुआ [ छिनत्ति] काटता है [ सः] वह आत्मा [सम्यग्दृष्टि: ] निःशंक सम्यग्दृष्टि [ज्ञातव्यः] जानना चाहिये ॥ टीका-जिसकारण सम्यग्दृष्टि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भावमय है उस भावसे कर्मबंधके कारण शंकाको करनेवाले ऐसे मिथ्यात्व अविरति कषाय योग इन चारों भावोंका इसके अभाव है इसकारण निःशंक है । इसलिये इसके शंकाकर किया गया बंध नहीं है । तो क्या है ? निर्जरा ही है । भावार्थ-सम्यग्दृष्टिके जो कर्मका उदय आता है उसका आप
१ खरसः स्वभावः स्वपरावबोधशक्त्युपेतत्वं तेन चितं व्याप्तमित्यर्थः॥२ तात्पर्यवृत्तौ "मोहबाधकरे"पाठः।
४१ समय.