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३२० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
[ निर्जरात्मनो ज्ञानं तत्स्वयमेव शाश्वततया नो छिद्यते जातुचित् । तस्यातो मरणं न किंचन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो निश्शंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विंदति ॥ १५९ ॥ एकं ज्ञानमनाद्यनंतमचलं सिद्ध किलैतत्स्वतो यावत्तावदिदं सदैव हि भवेन्नात्र द्वितीयोदयः। तन्नाकस्मिकमत्र किंचन भवेत्तद्धीः कुतो ज्ञानिनो निश्शंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं
यविप्पमुक्का जमा यस्मादेव कारणात् , इहलोक-परलोक-अत्राण-अगुप्ति-मरणवेदना-आकस्मिकसंज्ञितसप्तभयविप्रमुक्ता भवंति तमा दु णिस्संका तस्मादेव कारणात् अनुभवता है ॥ भावार्थ-इंद्रियादिक प्राणोंके विनाशको लोक मरण कहते हैं सो आत्माके इंद्रियादिक प्राण परमार्थस्वरूप नहीं हैं निश्चयसे उसके ज्ञान प्राण हैं वह अविनाशी है उसका विनाश नहीं है इसलिये आत्माके मरण नहीं । इसकारण ज्ञानीको मरणका भय नहीं है। इसलिये ज्ञानी अपने ज्ञानस्वरूपको निःशंक हुआ निरंतर आप अनुभवता है । अब आकस्मिक भयका काव्य कहते हैं—एकं इत्यादि । अर्थ-ज्ञानी विचारता है कि ज्ञान; एक है अनादि है अनंत है अचल है ऐसा आपसे ही सिद्ध है सो जबतक है तबतक सदा वही है इसमें दूसरेका उदय नहीं है इसलिये इसमें अकस्मात् नया कुछ उत्पन्न हो ऐसा कुछ भी नहीं है । ऐसा विचारनेसे उस अकस्मात् होनेका भय कैसे हो ? नहीं हो सकता है । इसकारण वह ज्ञानी निःशंक हुआ निरंतर अपने स्वाभाविक ज्ञानस्वभावको सदा अनुभवता है ॥ भावार्थ-जो कभी अनुभवमें नहीं आया ऐसा कुछ अकस्मात् प्रगट हुआ भयानक पदार्थ उससे प्राणीको भय उपजता है वह आकस्मिक भय है । सो आत्माका ज्ञान है वह अविनाशी अनादि अनंत अचल एक है, इसमें दूसरेका प्रवेश नहीं है नवीन अकस्मात् कुछ होता नहीं। ऐसा ज्ञानी अपनेको जानता है उसके अकस्मात् भय कैसे हो ? इसलिये ज्ञानी अपने ज्ञानभावको निःशंक निरंतर अनुभवता है इसप्रकार सात भय ज्ञानीके नहीं हैं। यहां प्रश्न-अविरतसम्यग्दृष्टि आदिकको भी ज्ञानी कहते हैं उसके भयप्रकृतिका उदय है उसके निमित्तसे भय भी देखा जाता है सो ज्ञानी निर्भय कैसे है ? उसका समाधान--जो भयप्रकृतिके उदयके निमित्तसे भय उपजता है उसकी पीडा नहीं सही जाती, क्योंकि अंतरायके प्रबल उदयसे वह निर्बल है। इसलिये उस भयका इलाज भी करता है परंतु ऐसा भय नहीं है कि जिससे स्वरूपके ज्ञान श्रद्धानसे डिग जाय । तथा जो भय उपजता है वह मोहकर्मकी भयनामा प्रकृतिके उदयका दोष है उसका आप स्वामी होकर कर्ता नहीं बनता ज्ञाता ही रहता है ॥ आगे कहते हैं कि सम्यग्दृष्टिके निःशंकितादि जो चिन्ह हैं वे कर्मकी निर्जरा करते हैं शंकादिकसे किया बंध नहीं होता उसकी सूचनिकाका काव्य कहते हैं-टंकोत्कीणे इत्यादि । अर्थ-जिसकारण सम्यग्दृष्टिके निःशंकित आदि