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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
[ निर्जरा
शाश्वत एक एष सकलव्यक्तो विविक्तात्मनः चिल्लोकं स्वयमेव केवलमयं यल्लोकयत्येककः । लोकोऽयं न तवापरस्तव परस्तस्यास्ति तद्भीः कुतो निश्शंकं सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विंदति ॥ १५५ ॥ एषैकैव हि वेदना यदचलं ज्ञानं स्वयं वेद्यते निर्भेदोदितवेद्यवेदकवलादेकं सदानाकुलैः । नैवान्यागतवेदनैव हि भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो निश्शंकः थायां निजपरमात्मपदार्थभावनोत्पन्नसुखामृतरसास्वादतृप्ताः संतः सम्यग्दृष्टयः, घोरोप सप्तभयरहितत्वेन निर्विकारस्वानुभवस्वरूपं स्वस्थभावं न त्यजन्तीति कथयति ; — सम्मादिट्ठी
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सब जीवोंके प्रगट है जिसको यह ज्ञानी आत्मा ही स्वयमेव एकाकी ( केवल ) अवलो - कन करता है । उस अवस्थामें ज्ञानी ऐसा विचारता है कि यह चैतन्य लोक तेरा है। और इससे जो अन्य लोक है वह परलोक है तेरा नहीं । ऐसा विचारते हुए उस ज्ञानीके इसलोक तथा परलोकका भय कैसे होसकता है ? नहीं होता । इसकारण ज्ञानी निःशंक हुआ हमेशा अपनेको स्वाभाविक ज्ञानस्वरूप अनुभवता है भावार्थ - जो इस भवमें लोकोंका डर रहता है कि ये लोग न मालूम मेरा क्या बिगाड़ करेंगे ऐसा तो इस लोकका भय है, और परभवमें न मालूम क्या होगा ऐसा भय रहना वह परलोकका भय है । सो ज्ञानी ऐसा जानता है कि मेरा लोक तो चैतन्यस्वरूपमात्र एक नित्य है यह सबमें प्रगट है । इस लोकके सिवाय जो अन्य है परलोक है । सो मेरा लोक तो किसीका विगाड़ा हुआ नहीं विगड़ता । ऐसे विचारता हुआ ज्ञानी अपनेको स्वाभाविक ज्ञानरूप अनुभवे तो उसके इस लोकका भय किसतरह होसकता है कभी नहीं होता || अब वेदनाके भयका काव्य कहते हैं - एषैकेव इत्यादि । अर्थ - ज्ञानी पुरुषोंके यही एक वेदना है कि निराकुल होकर अपना एक ज्ञानस्वरूप आप अपने ज्ञानभावसे ही वेदा जाता है और आप ही वेदनेवाला ऐसा अभेदस्वरूप वेद्यवेदक भावके बलसे निरंतर निश्चल वेदा जाता है—अनुभव किया जाता है परंतु अन्यसे हुई वेदना ज्ञानी नहीं है । इसलिये उस ज्ञानीके उस वेदनाका भय कैसे होसकता है ? नहीं होता । इसकारण ज्ञानी निःशंक हुआ अपने स्वाभाविक ज्ञानभावको सदा ( निरंतर ) अनुभवता है ॥ भावार्थ - वेदना नाम सुखदुःखके भोगनेका है सो ज्ञानी एक अपना ज्ञानमात्रस्वरूपका भोगना ही है । वह अन्यकर नहीं जानता इसलिये अन्यकर आगत वेदनाका भय नहीं है । इसकारण सदा निर्भय हुआ ज्ञानका अनुभव करता है अब अरक्षाके भयका काव्य कहते हैं - यत् इत्यादि । अर्थ - ज्ञानी ऐसा विचारता है कि सत्स्वरूप वस्तु है वह नाशको प्राप्त नहीं होती ऐसी नियमसे वस्तुकी मर्यादा है। ज्ञान भी आप सत्स्वरूप वस्तु है उसकी निश्चयकर दूसरे से
आई हुई को वेदना ही
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१ सकलं कालं व्यक्तः प्रकटः सकलव्यक्त इत्यर्थः । २ एषोऽयं लोकः केवलमयं चिल्लोकं लोकयतीत्यर्थः ।