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अधिकारः ६]
समयसारः। सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विंदति ॥१५६॥ यत्सन्नाशमुपैति यन्न नियतं व्यक्तेति वस्तुस्थितिर्ज्ञानं सत्स्वयमेव तत्किल ततस्त्रातं किमस्यापरैः । अस्यात्राणमतो न किंचन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो निःशंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विंदति ॥ १५७॥ खं रूपं किल वस्तुनोऽस्ति परमा गुप्तिः स्वरूपे न यच्छक्तः कोऽपि परप्रवेष्टुमकृतं ज्ञानं खरूपं च नुः । अस्यागुप्तिरतो न काचन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो निश्शंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विंदति ॥ १५८ ॥ प्राणोच्छेदमुदाहरंति मरणं प्राणाः किलास्या
जीवा णिस्संका होंति सम्यग्दृष्टयो जीवाः शुद्धबुद्धैकस्वभावनिर्दोषपरमात्माराधनं कुर्वाणाः संतो निश्शंका भवंति यस्मात् कारणात् । णिब्भया तेण तेन निर्भया भवंति सत्तभ
रक्षा कैसी ? इसलिये उस ज्ञानका अरक्षा करने स्वरूप कुछ भी नहीं है इसकारण उस अरक्षाका भय ज्ञानीके कैसे होसकता है ? नहीं होता । ज्ञानी तो अपने स्वाभाविक ज्ञानस्वरूपको नि:शंक हुआ सदा आप अनुभवता है । भावार्थ-ज्ञानी ऐसा जानता है कि सत्तारूप वस्तुका कभी नाश नहीं होता सो ज्ञान आप सत्तास्वरूप है इसलिये इसका कोई ऐसा नहीं जिसकी रक्षा करनी ही पडे नहीं तो नष्ट होजाय । इसकारण ज्ञानीके अरक्षाका भय नहीं । वह तो निःशंक हुआ आप स्वाभाविक अपने ज्ञानको सदा अनुभवता है । अब अगुप्तिभयका काव्य कहते हैं-खं रूपं इत्यादि ।अर्थ-ज्ञानी विचारता है कि वस्तुका निजरूप ही परमगुप्ति है उसमें अन्य कोई प्रवेश नहीं करसकता। यहां ज्ञान भी पुरुषका स्वरूप है वह अकृत्रिम है इसलिये इसके कुछ भी अगुप्त नहीं है इसलिये उस अगुप्तिका भय ज्ञानीके नहीं है । इसी कारण ज्ञानी निःशंक हुआ निरंतर आप स्वाभाविक अपने ज्ञानभावको सदा अनुभवता है ॥ भावार्थ-जिसमें किसीका प्रवेश नहीं ऐसे गढ दुर्गादिकका नाम गुप्ति है उसमें यह प्राणी निर्भय होके रहता है। और जो गुप्त प्रदेश न हो खुला हुआ हो उसको अगुप्ति कहते हैं वहांपर बैठनेसे जीवको भय उत्पन्न होता है । उस अवसरमें ज्ञानी ऐसा समझता है कि जो वस्तुका निजस्वरूप है उसमें परमार्थसे दूसरी वस्तुका प्रवेश नहीं है यही परमगुप्ति है। सो पुरुषका स्वरूप ज्ञान है उसमें किसीका प्रवेश नहीं है । इसलिये ज्ञानीको भय कैसे होसकता है ? ज्ञानी अपने स्वाभाविक ज्ञानस्वरूपको निःशंक होकर निरंतर अनुभवता है ॥ अब मरणभयका काव्य कहते हैं-प्राणो इत्यादि । अर्थ-ज्ञानी विचारता है कि जो प्राणोंका उच्छेद होना उसे मरण कहते हैं सो आत्माका ज्ञान निश्चयकर प्राण है वह स्वयमेव शाश्वत है इसलिये इसका कभी उच्छेद नहीं होसकता इसकारण उस आत्माका मरण कुछ भी नहीं होता। ऐसा विचारनेसे ज्ञानीके उस मरणका भय कैसे हो ? इसलिये ज्ञानी निःशंक हुआ निरंतर अपने स्वाभाविक ज्ञान भावको आप सदा