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अधिकारः ६]
समयसारः। हत्वं । अथैवमयमशेषभावांतरपरिग्रहशून्यत्वात् उद्वांतसमस्ताज्ञानः सर्वत्राप्यत्यंतनिरालंबो भूत्वा प्रतिनियतटंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावः सन् साक्षाद्विज्ञानघनमात्मानमनुभवति । पूर्वबद्धनिजकर्मविपाकाद् ज्ञानिनो यदि भवत्युपभोगः । तद्भवत्वथ च रागवियोगान्नूनमेति न परिग्रहभावं ॥ १४६ ॥" २१४ ॥
उप्पण्णोदयभोगो विओगबुद्धीए तस्स सो णिचं । कंखामणागयस्स य उदयस्स ण कुव्वए णाणी ॥ २१५॥
उत्पन्नोदयभोगो वियोगबुद्ध्या तस्य स नित्यं ।
कांक्षामनागतस्य चोदयस्य न करोति ज्ञानी ॥ २१५ ॥ कर्मोदयोपभोगस्तावत् अतीतः प्रत्युत्पन्नो नागतो वा स्यात्। तत्रातीतस्तावत् अतीनुमितैश्च बाह्याभ्यंतरपरिग्रहरूपे चेतनाचेतनपरद्रव्ये सर्वत्र निरालंबोऽपि, अनंतज्ञानादिगुणखरूपे स्वस्वभावे पूर्णकलश इव सालंबन एव तिष्ठतीति भावार्थः ॥ २१४ ॥ अथ ज्ञानी वर्तमानभाविभोगेषु वांछां न करोतीति कथयति;-उप्पण्णोदयभोगे वियोगबुद्धीय तस्स सो णिचं उत्पन्नोदयभोगे वियोगबुद्धिश्च हेयबुद्धिर्भवति 'तस्य तस्मिन् भोगविषये 'षष्ठीसप्तम्योरभेद इति वचनात्' कोसौ निरीहवृत्तिर्भवति ? स्वसंवेदनज्ञानी नित्यं सर्वकालं कंखामणागदस्स य उदयस्स ण कुव्वदे णाणी स एव ज्ञानी, कर्मके उदयसे उपभोग होता है सो होवे परंतु रागके वियोगसे निश्चयकर वह उपभोग परिग्रहभावको नहीं प्राप्त होता ॥ भावार्थ-पूर्व बांधे हुए काँका जब उदय आये तब उपभोगसामग्री प्राप्त होवे उसको अज्ञानमय राग भावकर भोगे तब तो वह परिग्रहभावको प्राप्त होवे । परंतु ज्ञानीके अज्ञानमय रागभाव नहीं हैं उदय आया है उसे भोगता है । यह जानता है कि पूर्व बांधा था वही उदय आगया पीछा छूटा आगामी नहीं वांछा करता हूं। इसतरह उनसे रागरूप इच्छा नहीं है तब वे परिग्रह भी नहीं हैं ॥ २१४॥
आगे ज्ञानीके तीन कालगत परिग्रह नहीं है ऐसा कहते हैं;-[ उत्पन्नोदयभोगः ] उत्पन्न हुआ वर्तमान कालके उदयका भोग [ तस्य ] उस ज्ञानीके [नित्यं] हमेशा [स] वह [वियोगबुद्ध्या ] वियोगकी बुद्धिकर वर्तता है इसलिये परिग्रह नहीं है [च ] और [अनागतस्य उदयस्य ] आगामी कालमें होनेवाले उदयकी [ज्ञानी ] ज्ञानी [ कांक्षां] वांछा [ न करोति ] नहीं करता इसलिये परिग्रह नहीं है । तथा अतीतकालका वीत ही चुका सो यह विना कहा सामर्थ्यसे ही जानना कि इसके परिग्रह नहीं है । गयेहुएकी वांछा ज्ञानीके कैसे हो ? टीका कर्मके उद्यका उपभोग तीन प्रकार है-अतीतकालका, वर्तमानकालका, अगामीकालका। उनमें