________________
अधिकारः ६]
समयसारः। यथा खलु कनकं कर्दममध्यगतमपि कर्दमेन न लिप्यते तदलेपस्वभावत्वात् । तथा किल ज्ञानी कर्ममध्यगतोऽपि कर्मणा न लिप्यते सर्वपरद्रव्यकृतरागत्यागशीलत्वे सति तदलेपस्वभावत्वात् । यथा लोहं कर्दममध्यगतं सत्कर्दमेन लिप्यते तल्लेपस्वभावत्वात् तथा किलाज्ञानी कर्ममध्यगतः सन् कर्मणा लिप्यते सर्वपरद्रव्यकृतरागोपादानशीलत्वे सर्वद्रव्येषु वीतरागत्वात्कर्मणा न लिप्यते सरागत्वादज्ञानी लिप्यते, इति प्रतिपादयति;हर्षविषादादिविकल्पोपाधिरहितः स्वसंवेदनज्ञानी सर्वद्रव्येषु रागादिपरित्यागशीलः यतः कारणात् , ततः कर्दममध्यगतं कनकमिव कर्मरजसा न लिप्यते । अज्ञानी पुनः स्वसंवेदनज्ञा
आगे इसी अर्थका व्याख्यान गाथामें करते हैं;-[ज्ञानी] ज्ञानी [सर्वद्रव्येषु ] सब द्रव्योंमें [ रागप्रहायकः ] रागका छोडनेवाला है वह [कर्ममध्यगतः ] कर्मके मध्यमें प्राप्त होरहा है [तु] तौभी [ रजसा ] कर्मरूपी रजसे [नो लिप्यते ] नहीं लिप्त होता [ यथा ] जैसे [ कर्दममध्ये] कीचड़में पड़ा हुआ [ कनकं] सोना [तु पुनः] और [ अज्ञानी] अज्ञानी [सर्वद्रव्येषु ] सब द्रव्योंमें [ रक्तः ] रागी है इसलिये [कर्ममध्यगतः ] कर्मके मध्यको प्राप्त हुआ [कर्मरजसा ] कर्मरजकर [ लिप्यते] लिप्त होता है [ यथा ] जैसे [कर्दममध्ये ] कीचमें पड़ा हुआ [ लोहं] लोहा अर्थात् जैसे लोहेके काई लग जाती है वैसे ॥ टीका-जैसे निश्चयकर सुवर्ण कीचड़के वीचमें पड़ा हुआ है तौभी कीचड़से लिप्त नहीं होता क्योंकि सुवर्ण में काई नहीं लगती क्योंकि सुवर्णका स्वभाव कर्दमके लेप न लगने स्वरूप ही है उसीतरह प्रगटपनेसे ज्ञानी कर्मके वीचमें पड़ा है तौभी कर्मकर लिप्त नहीं होता क्योंकि ज्ञानी सब परद्रव्यगत रागके त्यागके स्वभावपनेके होनेपर कर्मका लेपरूप स्वभाव स्वरूप नहीं है । और जैसे लोहा कर्दमके मध्य पड़ा हुआ कर्दमकर लिप्त हो जाता है क्योंकि लोहेका स्वभाव कर्दमसे लिप्त होनेरूप ही है उसीतरह अज्ञानी प्रगटपने कर्मके वीच पड़ा हुआ कर्मकर लिप्त होता है क्योंकि अज्ञानी सब परद्रव्योंमें किये गये रागका उपादान स्वभाव होनेपर कर्ममें लिप्त होनेके स्वभाव स्वरूप है। भावार्थ-जैसे कीचड़में पड़े सुवर्ण के काई नहीं लगती और लोहेके काई लगजाती है उसीतरह ज्ञानी कर्मके मध्यगत है तौभी वह कर्मसे नहीं बंधता । और अज्ञानी कर्मसे बंधता है । यह ज्ञान अज्ञानकी महिमा है । अब इस अर्थका तथा अगले कथनकी सूचनिकाका कलशरूप काव्य कहते हैं-याहा इत्यादि । अर्थ-इस लोकमें जिस वस्तुका जैसा स्वभाव है उसका वैसा ही स्वाधीनपना है यह निश्चय है सो उस स्वभावको अन्य कोई अन्य सरीखा करना चाहे तो कभी अन्य सरीखा नहीं करसकता इस न्यायसे ज्ञान निरंतर ज्ञानस्वरूप ही होता है ज्ञानका अज्ञान कभी नहीं होता यह निश्चय है । इसलिये हे ज्ञानी! तू कर्मके उदयजनित उपभोगको भोग तेरे परके अप