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अधिकारः ६] समयसारः।
३०५ कांक्षित एव, ज्ञानिनोऽज्ञानमयभावस्याकांक्षाया अभावात् । ततो नागतोऽपि कर्मोदयोपभोगो ज्ञानिनः परिग्रहो न भवेत् ॥ २१५॥ कुतोऽनागतं ज्ञानी नाकांक्षतीति चेत् ;
जो वेददि वेदिजदि समए समए विणस्सदे उहयं । तं जाणगो दु णाणी उभयपि ण कंखइ कयावि ॥ २१६ ॥
यो वेदयते वेद्यते समये समये विनश्यत्युभयं ।।
तद् ज्ञायकस्तु ज्ञानी, उभयमपि न कांक्षति कदाचित् ॥ २१६ ॥ __ ज्ञानी हि तावद् ध्रुवत्वात् स्वभावभावस्य टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावो नित्यो भवति, यौ तु वेद्यवेदकभावौ तौ तूत्पन्नप्रध्वंसित्वाद्विभावभावानां क्षणिकौ भवतः । तत्र यो भावि तमखंडपरमात्मपदं न लभ्यते इति संक्षेपव्याख्यानमुख्यत्वेन सूत्राष्टकं गतं ॥ २१५ ॥ अथ भाविनं भोगं ज्ञानी न कांक्षतीति कथयति;-जो वेददि वेदिजदि समए समए विणस्सदे उहयं योसौ रागादिविकल्पः कर्ता वेदयत्यनुभवति यस्तु ग्रह नहीं है । वर्तमानके कारण मिलाता है सो पीड़ा नहीं सही जाती उसका इलाज रोगकी तरह करता है यह निबलाईका दोष है ॥ २१५ ॥ ___ आगे पूछते हैं कि अनागतकालके कर्मके उदयको ज्ञानी क्यों नहीं वांछता? उसका उत्तर कहते हैं;-[य] जो [वेदयते] अनुभव करनेवाला भाव अर्थात् वेदकभाव और जो [वेद्यते] अनुभव करने योग्य भाव अर्थात् वेद्यभाव [उभयं] इसतरह वेदक और वेद्य ये दोनों भाव आत्माके होते हैं सो क्रमसे होते हैं एक समयमें नहीं होते । ये दोनों ही [समय समये] समय समयमें [विनश्यति ] विनस जाते हैं। आत्मा दोनों भावोंमें नित्य है [ तत् ] इसलिये [ ज्ञानी ] ज्ञानी आत्मा [ ज्ञायकः तु] दोनों भावोंका ज्ञायक (जाननेवाला ) ही है [उभयमपि] इन दोनों भावोंको ज्ञानी [कदापि] कदाचित् भी [नकांक्षति नहीं चाहता॥ टीका-ज्ञानी तो अपने स्वभावके ध्रुवपना होनेसे टंकोत्कीर्ण एक ज्ञानस्वरूप नित्य है और जो वेदनेवाला तथा वेदने योग्य ऐसे दो वेदक तथा वेद्यभाव हैं वे उपजना तथा विनाशस्वरूप है क्योंकि विभाव भाव हैं उनके क्षणिकपना है इसलिये दोनों भाव विनाशीक (क्षणिक) हैं वहां ऐसा विचार होता है कि वेदकभाव आगामी वांछामें लेने योग्य वेद्य भावको अनुभव करे। यह जबतक उपजे तबतक वेद्यभाव नष्ट होजाय (विनस जाय) उसके विनाश होनेपर वेदकभाव किसका अनुभव करे ? तथा जो यहां ऐसे कहा जाय कि वांछामें आता जो वेद्यभाव उसके वाद होनेवाला जो अन्य वेद्य भाव उसको वेदता है तो उसके होनेके पहले ही वह वेदकभाव विनस जाता है तब उस वेद्य भावको कौन वेद सकता है ? । फिर कहते हैं
३९ समय.