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समयसारः । ..
१२१ ज्ञानं चेत् किमास्रवेषु प्रवृत्तं किंवास्रवेभ्यो निवृत्तं । आस्रवेषु प्रवृत्तं चेत्तदपि तदभेदज्ञानान्न तस्य विशेषः । आस्रवेषु निवृत्तं चेत्तर्हि कथं न ज्ञानादेव बंधनिरोधः इति निरस्तो ज्ञानांशः क्रियानयः । यत्त्वात्मास्रवयोर्भेदज्ञानमपि नास्रवेभ्यो निवृत्तं भवति तज्ज्ञानमेव न भवतीति ज्ञानांशो ज्ञाननयोपि निरस्तः । “परपरणतिमुज्झत् खंडयद्भेदवादानिदमुदितमखंडं ज्ञानमुचंडमुच्चैः । ननु कथमवकाशः कर्तृकर्मप्रवृत्तेरिह भवति कथं वा पौद्गलः निरोधो भवति नास्ति सांख्यादिमतप्रवेशः । किं च यच्चात्मास्रवयोः संबंधि भेदज्ञानं तद्रागाद्यास्रवेभ्यो निवृत्तं न वेति निवृत्तं चेत्तर्हि तस्य भेदज्ञानस्य मध्ये पानकवदभेदनयेन वीतरागचारित्रं वीतरागसम्यक्त्वं च लभ्यत इति सम्यग्ज्ञानादेव बंधनिरोधसिद्धिः । यदि रागादिभ्यो निवृत्तं न होता परंतु अन्य प्रकृतियोंका तो आस्रवपूर्वक बंध होता है उसको ज्ञानी कहना कि अज्ञानी ? उसका समाधान-जो इसके प्रकृतियोंका बंध होता है वह अभिप्रायपूर्वक नहीं है सम्यग्दृष्टि हुए वाद परद्रव्यका स्वामीपनेका अभाव है इसकारण जबतक इसके चारित्र मोहका उदय है तबतक उसके उदयके अनुसार आस्रवबंध होते हैं उसका स्वामित्व नहीं है वह अभिप्रायमें निवृत्त होना ही चाहता है इसलिये ज्ञानी ही कहा जाता है। यहां बंध मिथ्यात्वसंबंधी ही अनंत संसारका कारण है वही प्रधानतासे विवक्षित है । जो अविरतादिकसे बंध होता है वह अल्पस्थिति अनुभागरूप है दीर्घसंसारका कारण नहीं है इसलिये प्रधान नहीं गिना जाता । अथवा ज्ञान बंधका कारण नहीं है जबतक ज्ञानमें मिथ्यात्वका उदय था तबतक अज्ञान कहलाता था मिथ्यात्व चले जानेके वाद अज्ञान नहीं, ज्ञान ही है । इसमें जो कुछ चारित्रमोह संबंधी विकार है उसका स्वामी ज्ञानी नहीं बनता इसीकारण ज्ञानीके बंध नहीं है । विकार बंधरूप है वह बंधकी पद्धति में है ज्ञानकी पद्धति में नहीं है । इसी अर्थका समर्थनरूप कथन आगेकी गाथामें होगा। यहांपर कलशरूप काव्य कहा है । परपरिणति इत्यादि । अर्थ-यह ज्ञान है वह प्रत्यक्ष उदयको हुआ प्राप्त है । कैसा होके ? जिसमें ज्ञेयके निमित्तसे तथा क्षयोपशमके विशेषसे अनेकखंडरूप आकार प्रतिभासमें जो आते थे उनसे रहित ज्ञानमात्र आकार अनुभवमें आया इसीसे 'अखंड' ऐसा विशेषण कहा है । जो मतिज्ञान आदि अनेक भेद कहे जाते थे उनको दूर करता उदय हुआ है इसीसे "अखंड" विशेषण है । फिर कैसा है ? परके निमित्तसे रागादिरूप परिणमता था उस परिणतिको छोड़ता हुआ उदय हुआ है । तथा अतिशयकर प्रचंड है परके निमित्तसे रागादिरूप नहीं परिणमता, बलवान है । ऐसा होनेपर आचार्य कहते हैं कि अहो ऐसे ज्ञानमें परद्रव्यके कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिका अवकाश कैसे हो सकता है तथा पौद्गलिक कर्मबंध भी कैसे हो सकता है ? नहीं होता ॥ भावार्थ-कर्मबंध तो अज्ञानसे हुई कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिसे था जब भेदभावको और परपरिणतिको दूरकर एकाकार ज्ञान प्रगट हुआ तब
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