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अधिकार : ४ ]
समयसारः ।
“अध्यास्य शुद्धनयमुद्धतबोधचिह्नमैकाग्र्यमेव कलयंति सदैव ये ते | रागादिमुक्तमनसः सततं भवंतः पश्यंति बंधविधुरं समयस्य सारं ॥ १२६ ॥ प्रच्युत्य शुद्धनयतः पुनरेव ये तु रागादियोगमुपयांति विमुक्तबोधाः । ते कर्मबंधमिह बिभ्रति पूर्वबद्धद्रव्यास्रवैः कृतविचित्र विकल्पजालं १२७|” १७७ १७८॥
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त्रस्वरूपाऽप्रमत्तादिगुणस्थानवर्तिवीतरागचारित्राविनाभूतवीतरागसम्यक्त्वस्यान्यथानुपपत्तेरिति । तथाचोक्तं—आद्या सम्यक्वचारित्रे द्वितीया घ्नन्त्यणुव्रतं । तृतीया संयमं तु यथाख्यातं क्रुधादयः॥ इति गाथापूर्वार्द्धे व्याख्यानं गतं । तह्मा आसवभावेण विणा हेदू ण पच्चया होंति - यस्मात् गाथायाः पूर्वार्धकथितक्रमेण रागद्वेषमोहा न संति तस्मात्कारणात् रागादिरूपभावास्रवेण विना अस्तित्वमात्रेण, उदयमात्रेण वा भावप्रत्ययाः सम्यग्दृष्टे भवं । हेदू चदुविप्पो अट्ठवियप्पस्स कारणं होदि मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगरूपचतुर्विधो हेतुः ज्ञानावरणादिरूपस्याष्टविधस्य नवतरद्रव्यकर्मणः कारणं भवति । तेसिं पिय रागादी तेषामपि मिथ्यात्वादिद्रव्यप्रत्ययानां उदयागतानां जीवगतरागादिभावप्रत्ययाः कारणं भवंति । कस्मात्? इति चेत् तेसिमभावे ण बज्झंति तेषां जीवगतरागादिभावप्रत्ययानामभावे सति द्रव्यप्रत्ययेष्वुदयागतेष्वपि वीतरागपरमसामायिकभावनापरिणताभेदरत्नत्रयलक्षणभेदज्ञानस्य सद्भावे सति कर्मणा जीवा न बध्यंते यतः कारणादिति । ततः स्थितं नवतरद्रव्यकर्मास्रवस्योदयागतद्रव्यप्रत्ययाः कारणं, तेषां च जीवगता रागादिभावप्रत्यया कारणमिति होना है । सो यह परोक्ष अनुभव है । एक देश शुद्धकी अपेक्षा व्यवहारकर प्रत्यक्ष भी कहते हैं । अब फिर कहते हैं कि जो इससे चिग जाते हैं वे कमोंको बांधते हैंप्रच्युत्य इत्यादि । अर्थ— जो पुरुष शुद्धनयसे छूट फिर रागादिकके संबंधको प्राप्त होते हैं वे ज्ञानको छोड़ कर्मबंधको धारण करते हैं, जिस कर्मबंधने पूर्वबंधे द्रव्यास्त्र - घोंकर अनेक प्रकारविकल्पोंका जाल कररक्खा है ॥ भावार्थ - फिर शुद्ध यसे च जाय तो रागादिकके संबंधसे द्रव्यास्रवके अनुसार अनेकभेदोंको लिये कर्मोंको बांधता है । नयसे चिगनेकर जो फिर मिध्यात्वका उदय आजाय तब बंध होने लगता है क्योंकि यहां मिथ्यात्वसंबंधी रागादिकसे बंध होने की प्रधानता की है और उपयोगकी अपेक्षा गौण है । शुद्धोपयोगरूप रहनेका काल थोड़ा है इसलिये उसके छूटनेकी अपेक्षा यहां नहीं है । ज्ञान अन्य ज्ञेयोंसे उपयुक्त होवे तौभी मिथ्यात्वके विना रागका अंश है वह ज्ञानीके अभिप्रायपूर्वक नहीं है इसलिये अल्पबंध संसारका कारण नहीं है । अथवा उपयोगकी अपेक्षा लीजाय तो शुद्धस्वरूपसे चिगे और सम्यक्त्वसे नहीं छूटे तब चारि
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मोहके रागसे कुछ बंध होता है वह अज्ञानकी पक्षमें नहीं गिना परंतु बंध तो अवश्य है उसीके मेंटने को शुद्धनयसे न छूटनेका और शुद्धोपयोग में लीन होनेका सम्यग्दृष्टि ज्ञानीको उपदेश है ऐसें जानना ।। १७७ । १७८ ॥