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२५२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
[ आस्रवपुद्गलकर्महेतुत्वं बिभ्रति द्रव्यप्रत्ययानां पुद्गलकर्महेतुत्वस्य रागाद्यहेतुत्वात् । ततो हेत्वभावे हेतुमदभावस्य प्रसिद्धत्वात् ज्ञानिनो नास्ति बंधः ॥ वच्छल्लं अणुकंपां गुणह सम्मत्तजुत्तस्स ॥” इति गाथाकथितलक्षणस्य चतुर्थगुणस्थानवर्तिसरागसम्यक्त्वान्यथानुपपत्तेरिति हेतुः । अथवा, अनंतानुबंध्यप्रत्याख्यानावरणसंज्ञाः क्रोधमानमायालोभोदयजनिता रागद्वेषमोहाः सम्यग्दृष्टेर्न संतीति पक्षः । कस्मात् ? इति चेत् ; निर्विकारपरमानंदैकसुखलक्षणपरमात्मोपादेयत्वे सति षद्रव्यपंचास्तिकायसप्ततत्त्वनवपदार्थरुचिरूपस्य मूढत्रयादिपंचविंशतिदोषरहितस्य तदनुसारि-प्रशमसंवेगानुकम्पादेवधर्मादिविषयास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणस्य पंचमगुणस्थानयोग्यदेशचारित्राविनाभाविसरागसम्यक्त्वस्यान्यथानुपपत्तेरिति हेतुः । अथवा अनंतानुबंध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणक्रोधमानमायालोभोदयजनितरागद्वेषमोहाः सम्यग्दृष्टेन संतीति पक्षः। कस्मादिति चेत्, चिदानंदैकस्वभावशुद्धात्मोपादेयत्वे सति षद्रव्यपंचास्तिकायसप्ततत्त्वनवपदार्थरुचिरूपस्यमूढत्यादिपंचविंशतिदोषरहितस्य तदनुसारिप्रशमसंवेगानुकंपादेवधर्मादिविषयास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणस्य षष्ठगुणस्थानरूपसरागचारित्राविनाभाविसरागसम्यक्त्वस्यान्यथानुपपत्तेरिति हेतुः । अथवा अनंतानुबंध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनक्रोधमानमायालोभतीव्रोदयजनिताः प्रमादोत्पादकाः रागद्वेषमोहाः सम्यग्दृष्टेन संतीति पक्षः। कस्मात् ? इति चेत्-शुद्धबुद्धकस्वभावपरमात्मोपादेयत्वे सति तद्योग्यस्वकीयशद्धात्मसमाधिसंज्ञातसहजानंदैकस्वलक्षणसुखानुभूतिमाभावासवोंके विना द्रव्यास्रव बंधके कारण नहीं हैं, कारणका कारण न हो तभी कार्यका भी अभाव हो जाता है यह प्रसिद्धि है । इसलिये सम्यग्दृष्टि ज्ञानी ही है इसके बंध नहीं है । यहां सम्यग्दृष्टिको ज्ञानी कहनेकी अपेक्षा ऐसी जानना कि प्रथम तो जिसके ज्ञान हो वही ज्ञानी कहलाता है सो सामान्यज्ञानकी अपेक्षा तो सभी जीव ज्ञानी है और सम्यग्ज्ञान मिथ्याज्ञानकी अपेक्षा लीजाय तो सम्यग्दृष्टिके सम्यग्ज्ञान है उसकी अपेक्षा ज्ञानी है तथा मिथ्यादृष्टि अज्ञानी है। यदि संपूर्णज्ञानकी अपेक्षा ज्ञानी कहाजाय तो केवली भगवान ज्ञानी है क्योंकि जबतक सर्वज्ञ न हो तबतक पांचभावोंके कथनमें अज्ञानभाव बारवें गुणस्थानतक सिद्धांतमें कहा है । इसतरह अनेकांतसे विधिनिषेध सब अपेक्षासे निर्बाध सिद्ध होते हैं सर्वथा एकांतसे कुछ भी नहीं सधता । इसतरह ज्ञानी होके बंध नहीं करता । यह शुद्धनयका माहात्म्य है, इसलिये शुद्ध नयकी महिमा कहते हैं-अध्यास्य इत्यादि । अर्थ-जो पुरुष शुद्धनयको अंगीकार कर निरंतर एकाग्रपनेका अभ्यास करते हैं वे पुरुष रागादिरहित चित्तवालेहुए बंधकर रहित अपने शुद्ध आत्मस्वरूपको अवलोकन करते हैं। कैसा है शुद्धनय ? कि जिसका चिन्ह उज्ज्वल ज्ञान है जो कि किसीका छिपाया नहीं छिपता ॥ भावार्थ-यहां शुद्धनयकर एकाग्र होना कहा है । सो साक्षात् शुद्धनयका होना तो केवलज्ञान होनेपर होता है और शुद्धनय, श्रुतज्ञानका अंश है इसके द्वारा शुद्धस्वरूपका श्रद्धान करना तथा ध्यानकर एकाग्र