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अधिकारः ४] समयसारः।
२५५ द्रव्यप्रत्ययाः स्वस्य हेतुत्वहेतुसद्भावे हेतुमद्भावस्यानिवार्यत्वात् ज्ञानवरणादिभावैः पुद्गलकर्मबंधं परिणमयंति । न चैतदप्रसिद्ध पुरुषगृहीताहारस्योदराग्निना रसरुधिरमांसादिभावैः परिणामकारणस्य दर्शनात्। "इदमेवात्र तात्पर्य हेयः शुद्धनयो नहि। नास्ति बंधस्तदत्यागात् तत्त्यागाद्वंध एव हि ॥ १२८ ॥ धीरोदारमहिम्नयनादिनिधने बोधे निबध्नन् धृति त्याज्यः शुद्धनयो न जातु कृतिभिः सर्वकषः कर्मणां । तत्रस्थाः स्वमरीचिचक्रमचिरात्संहृत्य निर्यद्वहिः पूर्ण ज्ञानघनौघमेवमचलं पश्यंति शांतं महः ॥ १२९॥ "रागादीनां झगिति विगमात् सर्वतोप्यास्रवाणां नित्योद्योतं किमपि परमं वस्तु संपश्यतोऽतः । हारदृष्टांतेन अज्ञानिनश्चैतन्यलक्षणजीवस्य, नच विवेकिनः । पूर्व ये बद्धाः, मिथ्यात्वादिद्रव्यप्रत्ययाः, जीवगतरागादिपरिणाममुदराग्निस्थानीयं लब्ध्वा ते बहुविकल्पं कर्म बध्नति । णयपरिहीणा दु ते जीवा येषां जीवानां संबंधिनः प्रत्ययाः कर्म बध्नंति ते जीवाः । कथंभूताः? परमसमाधिलक्षणभेदज्ञानरूपात् शुद्धनयाद् भ्रष्टाः च्युताः । अथवा द्वितीयव्याख्यानं, ते प्रत्यय
त्यया अशुद्धनयेन जीवात सकाशात परिहीणा भिन्ना न च भवंति । इदमत्र तात्पर्य, नितात्पर्यरूप श्लोक कहते हैं—इद इत्यादि । अर्थ-यहां पहले कथनका यह तात्पर्य है कि शुद्धनय है वह त्यागने योग्य नहीं है यह उपदेश है। क्योंकि उस शुद्धनयके नहीं त्यागनेसे तो कर्मका बंध नहीं होता और उसके त्यागसे कर्मका बंध होता ही है ॥ फिर उस शुद्धनयके ही ग्रहणको दृढ करते हुए काव्य कहते हैं-धीरो इत्यादि । अर्थपुण्यवान् महान पुरुषोंकर शुद्धनय कभी छोड़ने योग्य नहीं है । कैसी शुद्धनय है ? जो ज्ञानमें स्थिरताको अतिशयसे बांधती है । कैसा वह ज्ञान है ? चलाचलपनेसे रहित और सर्व पदार्थों में विस्तार युक्त महिमावाला है, अनादिनिधन है अर्थात् जिसका आदिअंत नहीं है । कैसी शुद्धनय है ? कर्मोंका मूलसे नाश करनेवाली है । ऐसी शुद्धनयमें जो ठहर रहे हैं वे पुरुष अपने ज्ञानकी व्यक्तिविशेषको तत्काल समेंटकर कर्मके पटलसे बाह्य निकलता तथा संपूर्ण ज्ञानघनका समूहस्वरूप निश्चल जो शांतरूप ज्ञानमय प्रतापका पुंज उसे अवलोकन करते (देखते ) हैं ॥ भावार्थ-शुद्धनय, एक ज्ञानमय तेज (प्रताप ) के पुंज व एक चैतन्यमात्र आत्माको समस्तज्ञानके विशेषोंको गौणकर तथा समस्त पर निमित्तसे हुए भावोंको गौणकर शुद्ध नित्य अभेद (एक) रूप ग्रहण करता है । सो ऐसे शुद्धके विषयस्वरूप अपने आत्माको जो अनुभव करते हैं एकाग्र हो तिष्ठते हैं वे ही समस्त कर्मों के समूहसे जुदे केवलज्ञानस्वरूप अमूर्तीक पुरुषाकार वीतराग ज्ञानमूर्तिस्वरूप अपने आत्माको देखते हैं । इस शुद्धनयमें अंतर्मुहूर्त ठहरनेसे शुक्लध्यानकी प्रवृत्ति होकर केवलज्ञान उत्पन्न होता है ऐसा इसका माहात्म्य है । सो इसको अवलंबनकर जबतक केवलज्ञान न उत्पन्न हो तबतक फिर इससे चिगना नहीं १ रागादिसद्भावे। २ आत्मशुद्धत्वानुभवः । ३ ज्ञान विशेषव्यक्तिसमूहः । ४ वहिरनात्मपदार्थे निर्यद्
भ्राम्यत्।