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अधिकारः ५] समयसारः ।
२६३ ज्ञानत्वमपोहति, कारणसहस्रेणापि स्वभावस्यापोढुमशक्यत्वात् । तदपोहे तन्मात्रस्य वस्तुन एवोच्छेदात् । नचास्ति वस्तूच्छेदः सतो नाशासंभवात् । एवं जानंश्च कर्माक्रांतोऽपि न रज्यते न द्वेष्टि न मुह्यति किं तु शुद्धमात्मानमुपलभते । यस्य तु यथोदितं भेदविज्ञानं नास्ति स तदभावादज्ञानी सन्नऽज्ञानतमसाच्छन्नतया चैतन्यचमत्कारमात्रमात्मस्वभावमजानन् रागमेवात्मानं मन्यमानो रज्यते द्वेष्टि मुह्यते च न जातु शुद्धमात्मानमुपलभते । ततो भेदविज्ञानादेव शुद्धात्मोपलंभः ॥ १८४ ॥१८५॥ कयं शुद्धात्मोपलंभादेव संवर ? इति चेत् ;
सुद्धं तु वियाणंतो सुद्धं चेवप्पयं लहदि जीवो। जाणंतो दु असुद्धं असुद्धमेवप्पयं लहइ ॥१८६ ॥
शुद्धं तु विजानन् शुद्धं चेवात्मानं लभते जीवः ।
जानंस्त्वशुद्धमशुद्धमेवात्मानं लभते ॥ १८६ ॥ जानाति वीतरागस्वसंवेदनलक्षणभेदज्ञानी अण्णाणी मुणदि रागमेवादं अज्ञानी पुनः पूर्वोक्तभेदज्ञानाभावात् मिथ्यात्वरागादिरूपमेवात्मानं मनुते जानाति । कथंभूतः सन् ? अण्णाणतमोच्छण्णो अज्ञानतमसोच्छन्नः प्रच्छादितो झंपितः । पुनरपि कथंभूतः सन् । आदसहावं अयाणंतो निर्विकारपरमचैतन्यचमत्कारस्वभावं शुद्धात्मानं निर्विकल्पसमाधेरभावादजानन् अननुभवन् इति । एवं भेदज्ञानात्कथं शुद्धात्मोपलंभो भवतीति पृष्टे प्रत्युत्तरकथनरूपेण लनेपर भी अपने स्वभावके छोड़नेको असमर्थ है । यदि स्वभावको छोड़ दे तो उसके छोडनेसे उस स्वभावमात्र वस्तुका ही अभाव होजाय ऐसा वस्तुका अभाव होता नहीं है क्योंकि सत्ताका नाश होना असंभव है । ऐसा जानता हुआ ज्ञानी कर्मोंकर व्याप्त हुआ भी रागरूप, द्वेषरूप और मोहरूप नहीं होता । वह तो एक शुद्ध आत्माको ही पाता है । तथा जिसके जैसा कहा गया है वैसा विज्ञान नहीं है वह उस भेदविज्ञानके अभावसे अज्ञानी हुआ अज्ञानरूप अंधकारकर आच्छादितपना होनेके कारण चैतन्य चमत्कारमात्र आत्माके स्वभावको नहीं जानता रागस्वरूप ही आत्माको मानता हुआ रागी होता है द्वेषी होता है मोही होता है परंतु शुद्ध आत्माको कभी नहीं पाता। इसलिये यह सिद्ध हुआ कि भेदविज्ञानसे ही शुद्ध आत्माकी प्राप्ति है ॥ भावार्थ-भेदविज्ञानसे आत्मा जब ज्ञानी होता है तब कर्मका उदय आनेसे तप्तायमान हुआ भी अपने ज्ञानस्वभावसे नहीं छूटता । यदि स्वभावसे छूट जाय तो वस्तुका नाश हो जाय ऐसा न्याय है । इसलिये कर्मके उदयके समय ज्ञानी, रागी द्वेषी मोही नहीं होता ।
और जिसके भेदविज्ञान नहीं है वह अज्ञानी हुआ रागी द्वेषी मोही होता है । इसलिये यह निश्चय हुआ कि भेदविज्ञानसे ही शुद्ध आत्माकी प्राप्ति होती है ॥ १८४ ॥१८५॥
आगे पूछते हैं कि शुद्ध आत्माकी प्राप्तिसे ही संवर कैसे होता है ? उसका उत्तर क