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अधिकारः ६ ]
समयसारः ।
स्थायित्वेन स्थातुः स्थानं भवितुमशक्यत्वात् अपदभूताः । यस्तु तत्स्वभावनोपलभ्यमानः, नियतत्वावस्थः, एकः, नित्यः, अव्यभिचारी भावः, स एक एव स्वयं स्थायित्वेन स्थानं भवितुं शक्यत्वात् पदभूतः । ततः सर्वानेव स्थायिभावान् मुक्त्वा स्थायिभावभूतं, परमार्थरसतया स्वदमानं ज्ञानमेकमेवेदं स्वाद्यं । " एकमेवं हि तत्स्वाद्यं विपदामपदं पदं । अपदान्येव भासते पदान्यन्यानि यत्पुरः ॥ १३९ ॥ एकं ज्ञायकभावनिर्भर महास्वादं समासादयन् स्वादं द्वंद्वमयं विधातुमसहः स्वां वस्तुवृत्तिं विदन् । आत्मात्मानुभवानुभावविवशो भ्रश्यदूविशेषोदयं सामान्यं कलयत्किलैष सकलं ज्ञानं नयत्येकतां ॥ १४० ॥ " ॥ २०३ ॥
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कं ? कर्मतापनं तव णियदं थिरमेगमिमं भावं उपलब्भतं सहावेण भावं आत्मपदार्थ । कथंभूतं ? तव संबंधि स्वरूपं । नियतं निश्चितं । पुनरपि कथंभूतं ? स्थिरं, अविनश्वरं । एकं, असहायं । इदं प्रत्यक्षीभूतं । पुनरपि किं विशिष्टं ? उपलभ्यमानं अनुभूयमानं ।
कलशरूप श्लोक कहते हैं — एकमेव इत्यादि । अर्थ- वही एक पद आस्वादने योग्य है । जो पद, आपदाओंका पद नहीं है अर्थात् जिस पदमें कोई भी आपदा प्रवेश नहीं करसकती । जिसके आगे अन्य सभी पद अपद प्रतिभासते हैं | भावार्थ - एक ज्ञान ही आत्माका पद है इसमें कुछ भी आपदा नहीं है इसके आगे अन्य सभी पद आपदास्वरूप ( आकुलतामय ) अपद भासते हैं | फिर कहते हैं कि आत्मा, ज्ञानका अनुभव इसतरह करता है— एकं ज्ञायक इत्यादि । अर्थ- यह आत्मा, ज्ञानके विशेषोंके उदयको गौण करता हुआ सामान्यमात्र ज्ञानको अभ्यास करता सब ज्ञानको एकभावस्वरूप प्राप्त करता है । कैसा हुआ ? कि एक ज्ञायकमात्र भावकर भरे हुए ज्ञानको महास्वादको लेता हुआ । फिर कैसा है ? जो मिला हुआ वर्णादिक रागादिक तथा क्षायोपशमरूप ज्ञानके भेदरूप स्वाद उसके लेनेको असमर्थ है अर्थात् ज्ञानमें ही . एकाग्र हो जाता है तब दूसरा स्वाद नहीं आता । फिर कैसा है ? अपनी वस्तुक प्रवृत्तिको जानता है आस्वाद करता है क्योंकि वह आत्मा के अनुभव (आस्वाद ) के प्रभाव से विवश है अर्थात् उसी स्वादके आधीन है वहांसे चिग नहीं सकता, अद्वितीय स्वाद लेता हुआ बाहर क्यों आये ? ॥ भावार्थ - इस एक स्वरूपज्ञानके रसीले स्वादके सामने अन्यरस फीके हैं । सब भेदभाव मिट जाता है । ज्ञानके विशेष ज्ञेयके निमित्तसे होते हैं । सो जब ज्ञानसामान्यका स्वाद लिया जाता है तब सब ज्ञानके भेद भी गौण हो जाते हैं एक ज्ञान ही ज्ञेयरूप हो जाता है । यहां कोई पूछे कि छद्मस्थ पूर्णरूप केवलज्ञानका स्वाद कैसे आता है ? उसका उत्तर पहले शुद्धनयके कथनमें दे
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१ विपदां चातुर्गतिकदुःखानां । २ अपदानि अस्वभावभूतानि चातुर्गतिकपर्याया वा - रागद्वेषसुखदुःखामस्थाभेदा वा । ३ स्थैर्यादिधर्मान्वितस्य चैतन्यस्य पुरस्तात् । ४ गौणीकुर्वत् ।
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