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अधिकारः ६ ]
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यथा कश्चित् प्रकरणे व्याप्रियमाणोपि प्रकरणस्वामित्वाभावात् न प्राकरणिकः, अपरस्तु तत्राव्याप्रियमाणोऽपि तत्स्वामित्वात्प्राकरणिकः । तथा सम्यग्दृष्टिः पूर्वकर्मोदयसंपन्नान् विषयान् सेवमानोऽपि रागादिभावानामभावेन विषयसेवन फलस्वामित्वाभावादसेवक एव । मिथ्यादृष्टिस्तु विषयानसेवमानोऽपि रागादिभावानां सद्भावेन विषयसेवनफल स्वामित्वात्से
समयसारः ।
नमुख्यत्वेन गाथाचतुष्टयं गतं ॥ १९६ ॥ अथैतदेव वैराग्यस्वरूपं विवृणोति ; सेवतोवि ण सेवदि असेवमाणोवि सेवगो कोवि निर्विकारस्वसंवेदनज्ञानी जीवः स्वकीयगुणस्थानयोग्याशनपानादिपंचेंद्रियभोगं सेवन्नपि सेवको न भवति । अन्यः पुनः अज्ञांनी कश्चित् रागादिसद्भावादसेवन्नपि सेवको भवति । अमुमेवार्थं दृष्टांतेन दृढयति । परगणचेट्ठा कस्सवि ण य पायरणोत्ति सो होदि यथा कस्यापि परगृहादागतस्य विवाहादिप्रकरणचेष्टा तावदस्ति, तथापि विवाहादिप्रकरणस्वामित्वाभावात् प्राकरणिको न भवति । अन्यः पुनः प्रकर
आगे इसी अर्थको प्रकट दृष्टांतकर दिखलाते हैं; - [ कश्चित् ] कोई तो [ सेवमानोपि ] विषयोंको सेवता हुआ भी [न सेवते ] नहीं सेवता है ऐसा कहा जाता है, और [ असेवमानोपि ] कोई नहीं सेवता हुआ भी [ सेवकः ] सेवनेवाला कहा जाता है [कस्यापि ] जैसे किसी पुरुषके [ प्रकरणचेष्टा अपि ] किसी कार्यके करनेकी चेष्टा तो है अर्थात् उस प्रकरणकी सब क्रियाओंको करता है तौ भी किसीका कराया हुआ करता है [ सः ] वह [ प्राकरणः ] कार्य करनेवाला स्वामी है [ इति न च भवति ] ऐसा नहीं कहा जाता || टीका - जैसे कोई पुरुष किसी कार्यकी प्रकरणक्रियामें व्यापाररूप होके प्रवर्तता है उससंबंधी सब क्रियाओंको करता है तौभी उस कार्यका स्वामी कोई दूसरा ही है उसका कराया करता है । इसलिये प्रकरणके स्वामीपनेके अभाव से करनेवाला नहीं है । तथा दूसरा कोई पुरुष उस प्रकरण में व्यापाररूप नहीं प्रवर्तता है उस कार्यसंबंधी क्रियाको नहीं भी करता है तभी उ कार्य के स्वामीपनेसे उस प्रकरणका करनेवाला कहा जाता है । उसीतरह सम्यग्दृष्टि भी पूर्वसंचित कर्मोंके उदयकर प्राप्तहुए इंद्रियोंके विषयोंको सेवता है तौभी रागादिक भावोंके अभाव से विषय सेवनके फलके स्वामीपनेका अभाव होनेसे सेवनेवाला नहीं कहा जाता । और मिध्यादृष्टि, विषयोंको नहीं सेवताहुआ भी रागादि भावों के सद्भावसे विषय सेवनेके फलके स्वामीपनेसे विषयोंका सेवनेवाला ही कहा जाता है ॥ भावार्थ - जैसे किसी व्यापारी ( धनके स्वामी ) ने किसीको हाट ( दुकान ) पर नौकर रक्खा सो दुकानका काम ( व्यापार - वनज - देना लेना ) सब वह नौकरी ही करता है और धनी अपने घर में बैठा हुआ है दुकानसंबंधी कार्यको नहीं करता । वहां ऐसा विचारो कि उस दुकान के हानि लाभका स्वामी कौन है ? वास्तवमें तो यह वात