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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् ।
[ निर्जरा
र्थ्यान्न माद्यति तथा रागादिभावानामभावेन सर्वद्रव्योपभोगं प्रति प्रवृत्ततीत्रविरागभावः सन् विषयानुपभुंजानोऽपि तीव्रविरागभावसामर्थ्यान्न बध्यते ज्ञानी ॥ " नाश्नुते विषयसेवनेऽपि यः स्वं फलं विषयसेवनस्य ना । ज्ञानवैभवविरागताबलात् सेवकोऽपि तदसावसेवकः ॥ १३५ ॥” १९६॥
अथैतदेव दर्शयति ;
सेवतोवि ण सेवइ असेवमाणोवि सेवगो कोई । पगरणचेट्ठा कस्सवि ण य पायरणोत्ति सो होई ॥ १९७ ॥ सेवमानोऽपि न सेवते असेवमानोऽपि सेवकः कश्चित् । प्रकरणचेष्टा कस्यापि न च प्राकरण इति स भवति ॥ १९७ ॥
मज्जदि ण पुरिसो यथा कश्चित् पुरुषो व्याधिप्रतीकारनिमित्तं मद्यमध्ये मद्यप्रतिपक्षभूतमौषधं निक्षिप्य मद्यं पिबन्नपि रतेरभावान्न माद्यति । दब्बुवभोगे अरदो णाणीवि ण वज्झदि तव तथा परमात्मतत्त्वज्ञानी पंचेंद्रियविषयभूताशनपानादिद्रव्योपभोगे सत्यपि यावता यावतांशेन निर्विकारस्वसंवित्तिशून्य बहिरात्मजीवापेक्षया रागभावं न करोति तावता तावतांशेन कर्मणा न बध्यते । यदा तु हर्षविषादादिरूप समस्त विकल्प जालरहितपरमयोगलक्षणभेदज्ञानबलेन सर्वथा वीतरागो भवति । तदा सर्वथा न बध्यते इति वैराग्यशक्तिव्याख्यानं गतं । एवं यथाक्रमेण द्रव्यनिर्जराभावनिर्जराज्ञानशक्तिवैराग्यशक्तिप्रतिपादनरूपेण निर्जराधिकारे तात्पर्यव्याख्या
"
[ मद्यं ] मदिराको [ अरतिभावेन ] विना प्रीति से [ पिबन् ] पीताहुआ [ न माद्यति ] मतवाला नहीं होता [ तथैव ] उसीतरह [ ज्ञानी अपि ] ज्ञानी भी [ द्रव्योपभोगे ] द्रव्यके उपभोग में [अरतः ] तीव्र रागरहित हुआ [ न बध्यते ] कर्मोंसे नहीं बंधता ॥ टीका - जैसे कोई पुरुष मदिरामें तीव्र अरति भावकर प्रवृत्त होने से मदिरा ( शराब ) को पीताहुआ भी तीव्र अरतिभावकी सामर्थ्य से मतवाला नहीं होता, उसीतरह ज्ञानी भी रागादिभावोंके अभावसे सब द्रव्योंके भोगनेमें तीव्र विरागभाव प्रवर्तनेकर विषयोंको भोगता हुआ भी तीव्र विरागभावकी सामर्थ्य से कर्मोंकर नहीं बंधता || भावार्थ- - यह वैराग्यकी सामर्थ्य है कि विषयोंको सेवता हुआ भी कमोंकर नहीं बंधता || अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं— नाइनुते इत्यादि । अर्थ — यह पुरुष, विषयोंको सेवता हुआ भी विषयसेवनेके निजफलको नहीं पाता सो ज्ञानके विभवके तथा विरागताके बलसे विषयों का सेवनेवाला होने पर भी सेवने - वाला नहीं कहा जाता । भावार्थ- — ज्ञान और विरागताकी ऐसी कोई अचिंत्य साम है कि इंद्रियोंसे विषयों को सेवनेपर उनका सेवनेवाला नहीं कहा जाता । क्योंकि विषयसेवनका सामान्य निजफल संसार है । सो ज्ञानी वैरागीके मिध्यात्वका अभाव होने से संसारका भ्रमणरूप फल नहीं होता ॥ १९६ ॥