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अधिकारः ६ ] समयसारः।
२८३ एवं सम्यग्दृष्टिः सामान्येन विशेषेण च परस्वभावेभ्यो भावेभ्यो सर्वेभ्योऽपि विविच्य टंकोत्कीर्णंकज्ञायकस्वभावमात्मनस्तत्त्वं विजानाति । तथा तत्त्वं विजानंश्च स्वपरभावोपादानापोहननिष्पाद्यं खस्य वस्तुत्वं प्रथयन् कर्मोदयविपाकप्रभवान् भावान् सर्वानपि
अज्ञानी ॥ कह एस तुज्झ ण हवदि विविहो कम्मोदयफलविवागो कथमेष विविधकर्मोदयफलविपाकस्तव रूपं न भवतीति केनापि पृष्टः तत्रोत्तरं ददाति परदव्वाणुव
ओगो निर्विकारपरमाहादैकलक्षणस्वशुद्धात्मद्रव्यात्पृथग्भूतानि परद्रव्याणि यानि कर्माणि जीवे लग्नानि तिष्ठति तेषामुपयोग उदयोयं, औपाधिकस्फटिकस्य परोपाधिवत् । न केवलं भावक्रोधादि मम स्वरूपं न भवति, इति ण दु देहो हवहि अण्णाणी देहोऽपि मम स्वरूपं न भवति हु स्फुटं । कस्मादिति चेत् , अज्ञानी जडस्वरूपो यतः कारणात् , अहं पुनः अनंतज्ञा
है। इसलिये यह सम्यग्दृष्टि नियमसे ज्ञान वैराग्यकर सहित होता है यह सिद्ध हुआ ॥ भावार्थ-जब अपनेको तो ज्ञायकभावस्वरूप सुखमय जाने और कर्मके उदयकर हुए भावोंको आकुलतारूप दुःखमय जाने तब ज्ञानरूप रहना तथा परभावोंसे विरागता ये दोनों होते ही हैं । यह बात प्रगट अनुभवगोचर है, यही सम्यग्दृष्टिका चिन्ह है ॥ आगे कहते हैं कि ऐसा न हो और परद्रव्योंसे आसक्ततारूप रागी हो तथा सम्यग्दृष्टिपनेका अभिमानकरे वह कैसा सम्यग्दृष्टि? वृथा ही सम्यग्दृष्टिपनेका अभिमान करता है ऐसा काव्यमें कहते हैं-सम्यग्दृष्ट इत्यादि । अर्थ-जो परद्रव्यमें रागद्वेष मोहभावकर तो संयुक्त हैं और अपनेको ऐसा मानते हैं कि मैं सम्यग्दृष्टि हूं मेरे कदाचित् कर्मका बंध नहीं होता क्योंकि शास्त्रोंमें सम्यग्दृष्टिके बंध होना नहीं कहा है, ऐसा मानकर जिनका मुख गर्वसहित ऊंचा हुआ है तथा हर्षसहित रोमांचरूप हुआ है ऐसे हैं वे जीव महाव्रतादि आचरण करें तथा वचन विहार आहारकी क्रियामें यत्नसे प्रवर्तनेकी उत्कृष्टताको भी अबलंबन करें तो भी पापी मिथ्यादृष्टि ही हैं, क्योंकि आत्मा और अनात्माके ज्ञानसे रहित हैं। इसलिये सम्यक्त्वसे शून्य हैं उनके सम्यक्त्व नहीं है। भावार्थ-जो अपनेको सम्यग्दृष्टिमाने और परद्रव्यसे राग हो तो उसके सम्यक्त्व कैसा ? अर्थात् नहीं है । व्रतसमिति पाले तौभी आपपरके ज्ञानके विना पापी ही है, तथा अपने बंध नहीं होना मानकर स्वच्छंद प्रर्वते तो कैसा सम्यग्दृष्टि ? नहीं होसक्ता । क्योंकि चारित्रमोहके रागसे जबतक यथाख्यात चारित्र न हो तबतक बंध तो होता ही है । जबतक राग रहता है तबतक सम्यग्दृष्टि अपनी निंदा (गर्हा) करता ही रहता है ज्ञान होने मात्रसे तो बंधसे छूटना नहीं होता ज्ञान होनेके बाद उसीमें लीनरूप शुद्धोपयोगरूप चारित्रसे बंधन कटता है । इसलिये राग होनेपर बंध न होना मान स्वच्छंद होना तो मिथ्यादृष्टि ही है। यहां कोई पूछे कि व्रतसमिति तो शुभकार्य हैं उनको पालनेपर भी पापी क्यों कहा ? उसका समाधान