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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
[ निर्जरा
यस्य रागाद्यज्ञानभावानां लेशतोऽपि विद्यते सद्भावः, भवतु स श्रुतकेवलिसदृशोऽपि तथापि ज्ञानमयभावानामभावेन न जानात्यात्मानं । यस्त्वात्मानं न जानाति सोऽनात्मानमपि न जानाति स्वरूपपररूपसत्तासत्ताभ्याभ्यामेकस्य वस्तुनो निश्चीयमानत्वात् । ततो य आत्मानात्मानौ न जानाति स जीवाजीवौ न जानाति । यस्तु जीवाजीवौ न जानाति
त्वज्ञानाभावात् शुद्धबुद्धैकस्वभाषपरमात्मानं न जानाति, नानुभवति । कथंभूतोऽपि ? सर्वागमधरोऽपि सिद्धांत सिंधुपारगोऽपि । अप्पाणमयाणंतो अणप्पयं चेव सो अयाणंतो स्वसंवेदनज्ञानबलेन सहजानंदैकस्वभावं शुद्धात्मानमजानन्, तथैवाभावयंश्च शुद्धात्मनो भिन्नरागादिरूपमनामानं जानन् कह होदि सम्मदिट्ठी जीवाजीवे अयाणंतो स पुरुषो जीवाजीवस्वरूपमजानन् सन् कथं भवति सम्यग्दृष्टि: ? न कथमपीति । रागी सम्यग्दृष्टिर्न भवतीति भणितं भवद्भिः । तर्हि चतुर्थपंचमगुणस्थानवर्तिनः, तीर्थंकर - - कुमरभरत-सगर-राम-पांडवादयः
ज्ञानमयभावके अभावसे आत्माको नहीं जानता । और जो अपने आत्माको नहीं जानता है वह अनात्मा ( पर ) को भी नहीं जानता । क्योंकि अपना और परका स्वरूपका सत्त्व तथा असत्त्व दोनों एक ही वस्तुके निश्चयमें आ जाते हैं । इसलिये ऐसा है कि जो आत्मा और अनात्मा दोनोंको नहीं जामता है वह जीव अजीव वस्तुको ही नहीं जानता, तथा जो जीव अजीवको नहीं जानता वह सम्यग्दृष्टि नहीं है । इसलिये रागी है वह ज्ञानके अभावसे सम्यग्दृष्टि नहीं है ॥ भावार्थ - यहां रागी कहने से अज्ञानमय रागद्वेषमोहभाव लिये गये हैं । उसमें भी अज्ञानमय कहनेसे मिथ्यात्व अनंतानुबंधी से हुए रागादिक समझना, मिथ्यात्वके विना चारित्रमोहके उदयका राग नहीं लेना । क्योंकि अविरत सम्यग्दृष्टिआदिके चारित्रमोहके उदयसंबंधी राग है वह ज्ञानसहित है। उसको रोगके समान जानता है उस रागके साथ राग नहीं है कर्मोदयसे जो राग हुआ है उसको मैंटना चाहता है । और जो रागका लेशमात्र भी इसके नहीं कहा सो ज्ञानीके अशुभराग तो अत्यंत गौण है परंतु शुभराग होता है उस शुभरागको अच्छा समझ लेशमात्र भी उस रागसे राग करे तो सर्वशास्त्र भी पढ लिये हैं मुनि भी हो व्यवहारचारित्र भी पाले तौ भी ऐसा समझना चाहिये कि इसने अपने आत्माका परमार्थस्वरूप नहीं जाना कर्मोदयजनितभावको ही अच्छा समझा है उसीसे अपना मोक्ष होना मान रक्खा है। ऐसे माननेसे अज्ञानी ही है । अपने और परके परमार्थरूपको नहीं जाना तब जानना चाहिये कि जीव अजीव पदार्थका भी परमार्थरूप नहीं जाना और अब जीवअजीवको ही नहीं जाना तब कैसा सम्यग्दृष्टि ? ऐसा जानना ॥ अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं उसमें जो रागी प्राणी अनादिसे रागादिकको