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अधिकारः ६]
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समयसारः। अथ निर्जराधिकारः॥६॥
___ अथ प्रविशति निर्जरा-रागाद्यास्रवरोधतो निजधुरां धृत्वा परः संवरः कर्मागामि समस्तमेव भरतो दूरान्निरंधन स्थितः । प्राग्बद्धं तु तदेव दग्धुमधुना व्याजृम्भते निर्जरा ज्ञानज्योतिरपावृत्तं न हि यतो रागादिभिर्मूर्छति ॥ १३३॥
उवभोगमिदियेहिं व्वाणं चेदणाणमिदराणं । जं कुणदि सम्मदिट्ठी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं ॥१९३ ॥
उपभोगमिंद्रियैः द्रव्याणां चेतनानामितरेषां ।। यत्करोति सम्यग्दृष्टिः तत्सर्वं निर्जरानिमित्तं ॥ १९३ ॥
तत्रैवं सति रंगभूमेः सकाशात् श्रृंगाररहितपात्रवत् शुद्धजीवस्वरूपेण संवरो निष्क्रांतः । अथ वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूपा शुद्धोपयोगलक्षणा संवरपूर्विक निर्जरा प्रविशति । उवभोजमिंदियेहिं इत्यादिगाथामादिं कृत्वा दंडकान् विहाय पाठक्रमेण पंचाशद्गाथापर्यंतं षट्स्थलैर्निर्जराव्याख्यानं करोति । तत्र द्रव्यनिर्जराभावनिर्जराज्ञानशक्तिवैराग्यशक्तीनां क्रमेण व्याख्यानं करोति, इति पीठिकारूपेण प्रथमस्थले गाथाचतुष्टयं । तदनंतरं ज्ञानवैराग्यशक्तेः सामान्यव्याख्यानार्थ सेवंतोवि ण सेवदि इत्यादि द्वितीयस्थले गाथापंचकं । ततः परं तयोरेव ज्ञानवैराग्यशक्योर्विशेषविवरणार्थ परमाणुमित्तियंपि इत्यादि तृतीयस्थले सूत्रदशकं । ततश्च मतिश्रुता
अथ निर्जराधिकार ॥दोहा-'रागादिककू मेटिकरि, नवे बंध हति संत। पूर्व उदयमें समरहे, नमूं निर्जरावंत" यहां निर्जरा प्रवेश करती है । अर्थात् जैसे नृत्यके अखाड़ेमें नृत्य करनेवाला स्वांग वनाके प्रवेश करता है उसीतरह यहां तत्त्वोंका नृत्य है । वहां रंगभूमिमें निर्जराके स्वांगका प्रवेश है । उस जगह प्रथम ही सब स्वांग देखकर यथार्थ जाननेवाला जो सम्यग्ज्ञान है उसे टीकाकार मंगलरूप जान प्रकट करते हैं-रागाद्या इत्यादि । अर्थ-प्रथम तो उत्कृष्ट संवर रागादिक आस्रवोंके रोकनेसे अपनी सामर्थ्यकी हदको धारणकर आगामी सब ही-फर्मोको मूलमें दूरहीसे रोकता हुआ तिष्ठ रहा था, अब इस संवरके होनेके पहले जो कर्म बंधरूप हुआ था उसे जलानेको (नाश करनेको) निर्जरारूप अग्नि फैलती है सो इस निर्जराके प्रगट होनेसे ज्ञानज्योति आवरणरहित हुई फिर रागादि भावोंकर मूछित नहीं होती, सदा निरावरण रहती है ॥ भावार्थ-संवर होनेके वाद नवीन कर्म नहीं बंधते और जो पहले बंधेहुए थे वे निर्जर हुए तब ज्ञानका आवरण दूर होनेसे ज्ञान ऐसा हो जाता है कि फिर रागादिरूप नहीं परिणमता, सदा प्रकाशरूप ही रहता है ॥ आगे निर्जराका स्वरूप कहते हैं;
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