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समयसारः।
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अथ पुण्यपापाधिकारः॥३॥
अथैकमेव कर्म द्विपात्रीभूय पुण्यपापरूपेण प्रविशति;-तदथ कर्म शुभाशुभभेदतो द्वितयतां गतमैक्यमुपानयन् । ग्लपितनिर्भरमोहरजा अयं स्वयमुदेत्यवबोधसुधाप्लवः ॥ १०१॥ एको दूरात्यजति मदिरां ब्राह्मणत्वाभिमानादन्यः शूद्रः स्वयमहमिति नाति नित्यं तयैव । द्वावप्येतौ युगपदुदरान्निर्गतौ शूद्रिकायाः शूद्रौ साक्षादथ च चरतो जातिभेदभ्रमेण ॥ १०२ ॥
कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं । किह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि ॥ १४५ ॥
कर्माशुभं कुशीलं शुभकर्म चापि जानीत सुशीलं ।
कथं तद् भवति सुशीलं यत्संसारं प्रवेशयति ॥ १४५॥ शुभाशुभजीवपरिणामनिमित्तत्वे सति कारणभेदात् शुभाशुभपुद्गलपरिणाममयत्वे सति तत्रैवं सति जीवाजीवाधिकाररंगभूमौ नृत्यानंतरं शृंगारपात्रयोः परस्परपृथग्भाववत् शुद्धनिश्चयेन जीवाजीवौ कर्तृकर्मवेषविमुक्तौ निष्क्रान्ताविति । अथानंतरं निश्चयेनैकमपि
अथ पुण्यपापाधिकार ॥ दोहा-"पुण्यपाप दोऊ करम, बंधरूप दुर मानि । शुद्ध आत्मा जिन लह्यो, नमूं चरन हित जानि ॥" अब टीकाकारके वचन कहते हैंकर्म एक प्रकार ही है वह पुण्य पाप दोरूपोंकर प्रवेश करता है। जैसे नृत्यके अखाड़ेमें एक ही पुरुष अपने दोरूप दिखलाके नाच करे उसको यथार्थज्ञानी पहचाने तब एकही जानता है उसी तरह सम्यग्दृष्टिका ज्ञान यथार्थ है। यद्यपि कर्म एक ही है वही पुण्यपाप भेदकर दो भेदरूपकर नाचता है उसको ज्ञान एकरूप पहचान लेता है उसी ज्ञानकी महिमारूप इस अधिकारके आदिमें काव्य कहते हैं-तदद्य इत्यादि । अर्थकर्ता कर्म अधिकारके वाद यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर सम्यग्ज्ञानरूप चंद्रमा स्वयं (अपनेआप) उदयको प्राप्त होता है । वह ज्ञान, शुभ अशुभके भेदसे दोरूपपनेको प्राप्तहुए कर्मको एकपनेको प्राप्त करता हुआ उदय होता है । भावार्थ-अज्ञानसे कर्म एक भी दोतरहसे दीखता था उसे ज्ञानने एक प्रकार दिखला दिया। जिस ज्ञानने अतिशय मोहमयी रज दूर कर दी है अर्थात् ज्ञानमें मोहरूपी रज (धूलि) लगी हुई थी वह दूर कर दी तब यथार्थ ज्ञान हुआ । जैसे चंद्रमाके सामने बादल अथवा पालेका समूह आजाय तब यथार्थ प्रकाश नहीं होता आवरण दूर होनेपर यथार्थ प्रकाशता है उसतरह यहां भी जानना॥ आगे पुण्यपापके स्वरूपका दृष्टांतरूप काव्य कहते हैं-एको दूरात् इत्यादि । अर्थकिसी शूद्री स्त्रीके उदरसे एकही समय दो पुत्र जन्मे ( पैदा हुए ) उनमेंसे एक तो