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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
यतां तथापि । “कर्ता कर्ता भवति न यथा कर्म कर्मापि नैव ज्ञानं ज्ञानं भवति चयथा पुद्गलः पुद्गलोपि । ज्ञानज्योतिर्ज्वलितमचलं व्यक्तमंतस्तथोच्चैश्चिच्छक्तीनां निकर भरतोऽत्यंतगंभीरमेतत् ॥ १०० ॥ १४४ ॥ इति जीवाजीवौ कर्तृकर्मवेषविमुक्तौ निष्क्रांतौ ॥ इति श्रीमदमृतचंद्रसूरिविरचितायां समयसारख्याख्यायामात्मख्यातौ द्वितीयोऽकः ॥ २ ॥
कथनरूपेण गाथाचतुष्टयं चेति समुदायेनाष्टाधिकसप्ततिगाथाभिर्नवभिरंतराधिकारैः ॥ १४४ ॥ इति श्रीजयसेनाचार्यकृतायां समयसारख्याख्यायां शुद्धात्मानुभूतिलक्षणायां तात्पर्यवृत्तौ पुण्यपापादिसप्तपदार्थानां संबंधी पीठिकारूपस्तृतीयो महाधिकारः समाप्तः ॥ २ ॥
हुआ || भावार्थ - आत्मा ज्ञानी जब होता है तब ज्ञान तो ज्ञानरूप ही परिणमता है पुद्गल कर्मका कर्ता नहीं बनता और पुद्गल पुद्गलरूप ही रहता है कर्मरूप नहीं परिणमता । इसतरह आत्माके यथार्थ ज्ञान होनेसे दोनों द्रव्योंके परिणामों में निमित्त नैमित्तिकभाव नहीं होता ऐसा सम्यग्दृष्टिके ज्ञान होता है । इसतरह जीव और अजीव दोनोंने कर्ता कर्मके वेषकर एक होके नृत्यके अखाड़े में प्रवेश देखनेवाले सम्यग्दृष्टिके ज्ञानने दोनोंको जुदे जुड़े लक्षणसे दो दूरकर रंगभूमि से बाहर निकल गये । क्योंकि बहुरूपिया के देखनेवाला जबतक नहीं पहचानता तबतक चेष्टा करता पहचान ले तब वह निजरूप प्रगट कर चेष्टा नहीं उसी तरह यहां भी जानना ॥ १४४ ॥ इसप्रकार कर्ता कर्म पूर्ण हुआ ॥
किया था सो यथार्थ जान लिये तब वे वेश वेशकी यही प्रवृत्ति है रहता है और जब यथार्थ करता वैसा ही रहता है
नामा दूसरा अधिकार
सवैया – “जीव अनादि अज्ञान वसाय विकार उपाय वणै करता सो, ताकरि बंधन आन तणूं फल ले सुख दुःख भवाश्रमवासो । ज्ञान होय खुलै पर पासो, आतममांहि सदा सुविलास करै
भये करता न वने तब बंधन
सिव पाय रहे निति थासो
॥ १ ॥" इस अधिकारकी ७६ गाथा और कलशा ५५ तथा पहले अधिकारकी गाथा ६८ और कलसा ४५ सब मिलकर गाथा १४४ और कलसा १०० हुए ॥
इस प्रकार पं० जयचंद्रजीकृत इस समयसार ग्रंथकी आत्मख्याति नामा टीकाकी भाषाटीका में कर्ता कर्म नामा दूसरा अधिकार पूर्ण हुआ ॥ २ ॥