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अधिकारः ३] समयसारः।
२३३ वशतो यत्कर्म बंधाय तन्मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वतः ॥२॥ मग्नाः कर्मनयावलम्बनपरा ज्ञानं न जानंति ये मना ज्ञाननयैषिणोऽपि यदतिस्वच्छंदमंदाधमाः । विश्वस्योपरि ते तरंति सततं ज्ञानं भवंतः स्वयं ये कुर्वति न कर्म जातु न वशं यांति प्रदिजीवगुणा मुक्तिकारणं तद्गुणपरिणतो वा जीवो मुक्तिकारणं भवति तस्माच्छुद्धजीवाद्भिन्नं शुभाशुभमनोवचनकायव्यापाररूपं, तद्व्यापारेणोपार्जितं वा शुभाशुभकर्म मोक्षकारणं न भवरति नहीं है तबतक कर्म और ज्ञान दोनोंका इकट्ठापन भी कहा गया है तबतक इसमें कुछ हानि भी नहीं। यहांपर यह विशेषता है कि इस आत्मामें कर्मके उदयकी जबरदस्तीसे आत्माके वशके विना कर्म उदय होता है वह तो बंधके ही लिये है और मोक्षके लिये तो एक परमज्ञान ही है । वह ज्ञान, कर्मसे आप ही रहित है, कर्मके करनेमें अपने स्वामीपनेरूप कर्तापनेका भाव नहीं है । भावार्थ-जबतक कर्मका उदय है तबतक कर्म तो अपना कार्य करता ही है और वहींपर ज्ञान है वह भी अपना कार्य करता है । एक ही आत्मामें ज्ञान और कर्म दोनोंके इकट्ठे रहनेमें भी विरोध नहीं आता । जैसे मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञानका परस्पर विरोध है उसतरह कर्मसामान्यके और ज्ञानके विरोध नहीं है ॥ आगे कर्म और ज्ञानका नय विभाग दिखलाते हैं-मनाः इत्यादि । अर्थ-जो कोई कर्मनयके अवलंबनमें तत्पर हैं उसके पक्षपाती हैं वे भी डूब जाते हैं । जो ज्ञानको तो जानते नहीं और ज्ञाननयके पक्षपाती ( इच्छुक ) हैं वे भी डूबते हैं। जो क्रियाकांडको छोड़ स्वच्छंद हो प्रमादी हुए स्वरूपमें मंद उद्यमी हैं वे भी डूबते हैं । और जो आप निरंतर ( हमेशा ) ज्ञानरूप हुए कर्मको तो करते नहीं तथा प्रमादके वश भी नहीं होते स्वरूपमें उत्साहवान हैं वे सबलोकके ऊपर तैरते हैं। भावार्थयहां सर्वथा एकांत अभिप्रायका निषेध किया गया है क्योंकि सर्वथा एकांतका अभिप्राय होना ही मिथ्यादृष्टि है । वहां जो परमार्थभूत ज्ञानस्वरूप आत्माको तो जानता नहीं है
और व्यवहार दर्शन ज्ञान चारित्ररूप क्रियाकांडके आडंबरको ही मोक्षका कारण जान उसमें ही तत्पर रहता है उसीका पक्षपात करता है यह कर्मनय है । इसके पक्षपाती, ज्ञानको तो जानते नहीं है और इस कर्मनयमें ही खेदखिन्न हैं वे संसारसमुद्रमें डूबते हैं। और जो परमार्थभूत आत्मस्वरूपको यथार्थ तो जानते नहीं हैं तथा मिथ्यादृष्टि सर्वथा एकांतियोंके उपदेशसे अथवा स्वयमेव कुछ अंतरंगमें ज्ञानका स्वरूप मिथ्या कल्पना करके उसमें पक्षपात करते हैं और व्यवहार दर्शन ज्ञान चारित्रके क्रियाकांडको निरर्थक जान छोड़देते हैं ज्ञाननयके पक्षपाती भी हैं वे भी संसारसमुद्र में डूबते हैं, क्योंकि बाह्यक्रियाकांडको छोड़ स्वेच्छाचारी रहते हैं स्वरूपमें मंदउद्यमी रहते हैं । इसलिये जो पक्षपातका अभिप्राय छोड़ निरंतर ज्ञानरूप हुए कर्मकांडको छोड़ते हैं और निरंतर ज्ञानखरूपमें "जबतक न थंभा जाय तबतक" अशुभकर्मको छोड़ स्वरूपके साधनरूप शुभ
३० समय.