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अधिकारः ४]
समयसारः।
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न्यतयास्ति परिणामः । स तु यथाख्यातचारित्रावस्थाया अधस्तादवश्यभाविरागसद्भावात् बंधहेतुरेव स्यात् ॥ १७१॥ ___ एवं सति कथं ज्ञानी निरास्रवः ? इति चेत् ;
दंसणणाणचरित्तं जं परिणमदे जहण्णभावेण । णाणी तेण दु बज्झदि पुग्गलकम्मेण विविहेण ॥१७२ ॥ दर्शनज्ञानचारित्रं यत्परिणमते जघन्यभावेन ।
ज्ञानी तेन तु बध्यते पुद्गलकर्मणा विविधेन ॥ १७२ ॥ इत्यभिप्रायः ॥ १७१ ॥ अथ यथाख्यातचारित्राधस्तादंतर्मुहूर्तानंतरं निर्विकल्पसमाधौ स्थातुं न शक्यत इति भणितं पूर्व । एवं सति कथं ज्ञानी निरास्रव इति चेत् ;-दंसणणाणचरित्तं जं परिणमदे जहण्णभावेण ज्ञानी तावदीहापूर्वरागादिविकल्पकारणाभावान्निरास्रव एव । किं तु सोऽपि यावत्कालं परमसमाधेरनुष्ठानाभावे सति शुद्धात्मस्वरूपं द्रष्टुं ज्ञातुमनुचरितुं वासमर्थः तावत्कालं तस्यापि संबंधि यदर्शनं ज्ञानं चारित्रं तज्जघन्यभावेन सकषायभावेन अ. नीहितवृत्त्या परिणमति । णाणी तेण दु बज्झदि पुग्गलकम्मेण विविहेण तेन कारणेन सन् भेदज्ञानी स्वकीयगुणस्थानानुसारेण परंपरया मुक्तिकारणभूतेन तीर्थकरनामकहै इसलिये बंधका कारण ही है भावार्थ-क्षयोपशमज्ञानका एक ज्ञेयके ऊपर ठहरना अंतर्मुहूर्त ही होता है पीछे अवश्य अन्य ज्ञेयको अवलंबन करता है इसकारण स्वरूपमें भी अंतमुहूर्त ही ठहरना होसकता है । इसलिये ऐसा अनुमान है कि यथाख्यात चारित्र अवस्थाके नीचे अवश्य राग परिणामका सद्भाव है उस रागके सद्भावसे बंध भी होता है । इस कारण ज्ञान गुणका जघन्यभाव बंधका कारण कहा गया है ॥ १७१ ॥
आगे फिर पूछते हैं कि जो ज्ञानगुणका जघन्य भाव अन्यपनारूप परिणाम बंधका कारण है तो ज्ञानी निरास्रव है ऐसा किसतरहसे कहा ? उसके उत्तरकी गाथा कहते हैं;-[दर्शनज्ञानचारित्रं ] दर्शनज्ञानचारित्र [यत् ] जिसकारण [ जघन्यभावेन ] जघन्य भावकर [परिणमते ] परिणमते हैं [ तेन तु] इस कारणसे [ज्ञानी ] ज्ञानी [विविधेन ] अनेक प्रकारके - [ पुद्गलकर्मणा ] पुद्गलकोसे [बध्यते] बंधता है ॥ टीका-निश्चयकर जो ज्ञानी है वह बुद्धिपूर्वक रागद्वेषमोहरूप आस्रवभावके अभावसे निरास्रव ही है। वहां यह विशेषता है कि वही ज्ञानी जबतक ज्ञानको सर्वोत्कृष्टभावकर देखनेको जाननेको आचरण करनेको असमर्थ है तथा जघन्यभावसे ही ज्ञानको देखता है जानता है आचरता है तबतक उस ज्ञानीके भी ज्ञानके जघन्यभावकी अन्यथा अप्राप्तिकर अनुमानरूप कियागया अबुद्धिपूर्वक कर्ममलकलंकका सद्भाव है। इसलिये पुद्गलकर्मका बंध होता है । इसकारण यह उपदेश