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अधिकारः ४ ]
समयसारः ।
निरोधः । अतो ज्ञानी नास्रवनिमित्तानि पुद्गलकर्माणि बध्नाति नित्यमेवाकर्तृकत्वान्नवानि न बध्नन् सदवस्थानि पूर्वबद्धानि ज्ञानस्वभावत्वात्केवलमेव जानाति ॥ १६६ ॥ अथ रागद्वेषमोहानामास्रवत्वं नियमयति ;
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भावो रागादिजुदो जीवेण कदो दु बंधगो भणिदो । रायादिविष्पमुको अबंधगो जाणगो णवरिं ॥ १६७ ॥ भावो रागादियुतः जीवेन कृतस्तु बंधको भणितः । रागादिविप्रमुक्तोऽबंधको ज्ञायको नवरि ॥ १६७ ॥
सम्यग्दृष्टिर्भवति । तत्र योऽसौ सरागसम्यग्दृष्टिः,
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सोलसपणवीसणभं दसचउछक्केक बंधवोछिण्णा । दुगतीसच दुरवे पण सोलसजोगिणो इक्को ॥
इत्यादि बंधत्रिभंगकथितबंधविच्छेदक्रमेण मिथ्यादृष्टयपेक्षया त्रिचत्वारिंशत्प्रकृतीनामबंधकः । सप्ताधिकसप्ततिप्रकृतीनामत्पस्थित्यनुभागरूपाणां बंधकोऽपि सन् संसारस्थितिच्छेदको भवति । तेन कारणेनाबंधक इति । तथैवाविरतिसम्यग्दृष्टेर्गुणस्थानादुपरि यथासंभवं सरागसम्यक्त्वपर्यंतं, अधस्तनगुणस्थानापेक्षया तारतम्येनाबंधकः । उपरिमगुणस्थानापेक्षया पुनर्बंधकः । ततश्च वीतरागसम्यक्त्वे जाते साक्षादबंधको भवति, इति मत्वा वयं सम्यग्दृष्टयः सर्वथा बंधो नास्तीति वक्तव्यं । इति आस्रवविपक्षद्वारेण संवरस्य संक्षेपसूचनव्याख्यानमुख्यत्वेन गाथात्रयं गतं ॥ १६६ ॥ अथ रागद्वेषमोहरूपभावानामास्रवत्वं निश्चिनोति ; — भावो रागादिजुदो जीवेण कदो आदि पुद्गलकमको नहीं बांधता । जिसकारण सदा उन कर्मोंका अकर्ता है इसकारण उन कर्मोंको नवीन नहीं बांधता पहले बंधे हुए थे वे सत्तारूप अवस्थित हैं उनको केवल जानता ही है क्योंकि ज्ञानीका ज्ञान ही स्वभाव है कर्ता स्वभाव नहीं है कर्ता होवे तो बांधे ॥ भावार्थ - ज्ञानी हुए वाद अज्ञानरूप रागद्वेष मोह भावोंका निरोध है, रागद्वेष मोहका निरोध होनेपर मिथ्यात्व आदि आस्रव भावोंका निरोध होता है और आस्रव निरोधसे नवीन बंधका निरोध होता है । तथा पूर्व बंधे हुए सत्ता में स्थित हैं उनका ज्ञाता ही रहता है कर्ता नहीं होता और जब कर्ता नहीं हुआ तब ज्ञानीका ज्ञान स्वभाव है । यद्यपि अविरत सम्यग्दृष्टि आदिके चारित्रमोहका उदय है उसको ऐसा जानना कि यह उदयकी बलवत्ता है वह अपनी शक्तिके अनुसार उनको रोगरूप जान काटता ही है इसलिये हुए भी अनहुए सरीखे कहे जाते हैं आगामी सामान्यसंसार के बंधरूप वे नहीं है । जो अल्पस्थिति अनुभागरूप बंध करते हैं वे अज्ञानकी पक्ष में नहीं गिने । अज्ञानकी पक्ष में तो मिध्यात्व अनंतानुबंध के निमित्तसे बंधता है वह गिना जाता है । इसतरह ज्ञानीके आस्रव बंध नहीं गिना ॥ १६६ ॥
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आगे राग द्वेष मोह इनके ही आस्रवपनेका नियम करते हैं; - [ रागादियुक्तो